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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
बहुत समय बीतने के पश्चात् गरूणवेग ने अपनी गन्धर्वदत्ता को जिनदत्त के साथ उसके नगर भेज दिया। इधर जिनदत्त ने अपने मनोहर नामक उद्यान में वीणा स्वयंवर रखा और जीवन्धर कुमार ने उसे सुघोषा नामक वीणा को इस तरह बजाया कि गन्धर्वदत्ता अपने आप को पराजित समझने लगी और उसने जीवन्धर कुमार के गले में वरमाला डाल दी। एक बार बसन्तोत्सव में लीन नगर लोगों के मध्य कुछ बालकों ने चपलतावश एक कुत्ते को मारना प्रारम्भ कर दिया व्याकुल होकर कुत्ता इधर-उधर भागने लगा और जाकर एक आग के कुण्ड में जा गिरा। तभी जीवनधर कुमार ने उसे निकालकर पंच नमस्कार मंत्र सुनाया जिसके प्रभाव से वह चन्द्रोदय पर्वत पर सुदर्शन नामक यक्ष हुआ तथा जीवन्धर कुमार की स्तुतिकर सुख व दुःख में उसे स्मरण करने की बात कहकर चला गया। जब सब लोग क्रीडा कर वन से लौट रहे थे तब काष्ठांगारिक के अशनिघोष नामक हाथी ने कुपित होकर जनता में आतंक उत्पन्न कर दिया। सुरमंजरी उसकी चपेट में आने वाली ही थी कि जीवन्धर कुमार ने समय पर पहुँचकर हाथी को मद रहित कर दिया। इस घटना से सुरमंजरीका का जीवन्धर के प्रति अनुराग बढ़ गया और उसके माता-पिता ने जीवन्धर के साथ सुरमंजरी का विवाह कर दिया । जीवन्धर कुमार का यश चारों ओर फैलने लगा इससे काष्ठांगारिक को ईर्ष्या होने लगी तथा इसने मेरे हाथी को हानि पहुँचाई ऐसा विचार कर उसने अपने चण्डदण्ड नामक मुख्य रक्षक को जीवनधर कुमार पर आकमरण कर उसे मारने भेजा। किन्तु पहले से सावधान जीवनधर कुमार ने चण्डदण्ड को पराजित कर दिया। इससे कुपित होकर काष्ठांगारिक के पुनः युद्ध करने पर जीवन्धर कुमार ने सुदर्शन नामक यक्ष का स्मरण किया उसने सब युद्ध समाप्त कर दिया और जीवन्धर कुमार को अपने साथ ले गया।
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कुछ समय पश्चात् जीवन्धर कुमार चन्द्रानगर पहुँचकर और वहाँ सर्पदंश से पीडित पद्मोत्तमा के विष को दूर किया तभी पद्मोत्तमा के पिता धनपति ने अपना आधा राज्य व कन्या जीवन्धर कुमार को सौंप दी। जीवन्धर कुमार कुछ समय यहाँ सुखपूर्वक रहे तत्पश्चात् क्षेमनगर की क्षेमसुन्दरी तथा हेमाभनगर की हेमाभा आदि कन्याओं के साथ विवाह करते हुए धातकी खण्ड के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामक देश के पुण्डरीक नामक नगर में पहुँचकर सरोवर के किनारे एक निमित्तज्ञानी मुनिराज से अपने जीवन की