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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
जैनशिक्षा-पद्वति की वर्तमान में प्रासंगिकता
- श्रीमती प्रेमलता*
प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति का एकाग्र रूप से अध्ययन करने की दृष्टि से जैन शिक्षा पद्धति का अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
भारत में श्रमण और ब्राह्मण (या वैदिक) शिक्षा पद्धतियों का समानान्तर विकास हुआ है। श्रमण परम्परा के अंतर्गत ही जैन और बाद में बौद्ध शिक्षा पद्धति विकसित हुई। प्राचीन भारत में शिक्षा का विकास मूलतः ब्राह्मण और श्रमण विचारधारा जैन और बौद्ध दो धाराओं में विभक्त हो गयी। फलस्वरूप शिक्षा का भी तीन धाराओं में विकास हुआ - १. वैदिक शिक्षा पद्धति २. जैन शिक्षा पद्धति ३. बौद्ध शिक्षा पद्धति
जैन शिक्षा वैदिक शिक्षा की तरह निःश्रेयस या मोक्ष मलक रही है, किन्तु वैदिक शिक्षा के साथ अनेक समानताएँ होने पर भी जैनशिक्षा के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर है। वैदिकशिक्षा जिस प्रकार ऋषियों पर केन्द्रित थी, उसी प्रकार जैन शिक्षा के केन्द्र भी मुनि या श्रमण थे। किन्तु ऋषियों की तरह आश्रम-व्यवस्था स्वीकार न करने के कारण जैन शिक्षा का स्वरूप वैदिक शिक्षा से भिन्न रूप में विकसित हुआ। आश्रम पद्धति को स्वीकार न करने के कारण जैन शिक्षा के प्रायः वैसे केन्द्र न बन सके, जैस कि ऋषियों के आश्रम या तपोवन के रूप में वैदिक शिक्षा में विकसित हुए, बाद में मन्दिर, तीर्थ, स्वाध्यायशाला आदि के रूप में जैन परम्परा शिक्षा और संस्थानों का विकास हुआ।
जैन परम्परा में पांच परमेष्ठी माने गए हैं। इन्हें ही वास्तविक गुरु माना गया है। अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों के रूप में परिणमन किया गया है। उपाध्याय का कार्य मुख्य रूप से शिक्षा का होता था।