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अनेकान्त 6714, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
ज्ञान आया है, वह ही आगम कहलाता है।१२ आगमों की भाषा:
जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है। भगवान महावीर अर्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते थे। अर्धमागधी प्राकृत भाषा का ही एक रूप है। इस भाषा को देव भाषा कहा गया है अर्थात् देवता अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं। प्रज्ञापना में इस भाषा का प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा गया है। यह मगध के आधे भाग में बोली जाती थी तथा इसमें अठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसमें मागधी शब्द के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है। इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है। आगम के कर्ता :
__ जैन परम्परा के अनुसार आगम पौरुषेय है। मीमांसक जिस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानता है, जैन की मान्यता उसमें सर्वथा भिन्न है। उसके अनुसार कोई ग्रंथ अपौरुषेय हो ही नहीं सकता है तथा ऐसे किसी भी ग्रंथ का प्रामाण्य भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जितने भी ग्रंथ हैं उनके कर्ता अवश्य हैं। जैन परंपरा में तीर्थकर सर्वोत्कृष्ट प्रामाणिक पुरुष है उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रत्येक शब्द स्वतः प्रमाण है। वर्तमान में उपलब्ध संपूर्ण जैन आगम अर्थ की दृष्टि से तीर्थकर से जुड़ा हुआ है। अर्थागम के कर्ता तीर्थकर हैं एवं सूत्रागम के कर्ता गणधर एवं स्थविर हैं। अर्थ का प्रकटीकरण तीर्थकरों द्वारा होता है। गणधर उसे शासन के हित के लिए सूत्र रूप में गुम्फित कर लेते हैं। गणधर केवल द्वादशांग की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। वे गणधरकृत आगम से ही नि!हण करते हैं। स्थविर दो प्रकार के होते हैं-१. चतुर्दशपूर्वी २. दर्शपूर्वी। ये सदा निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके चलते हैं। एतदर्थ उनके द्वारा रचित ग्रंथों में द्वादशांगी से विरुद्ध तथ्यों की संभावना नहीं होती। अतः इनको भी जैन परम्परा आगम के कर्ता के रूप में स्वीकार करती है। ज्ञाताधर्मकथांग और संस्कृति के तत्त्व :
अंग साहित्य में ज्ञाताधर्मकथांग का छठा स्थान है। इसके दो श्रुत स्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञात अर्थात् उदाहरण और द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएं हैं। यही कारण है कि इस आगम को “णायाधम्मकहाओ" भी