Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 376
________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 के द्वारा काव्य सृजन करके आर्ष भाषा के विकास में अत्याधिक योगदान दिया। आगमों की भाषा को आर्ष प्राकृत कहना उचित है। आर्ष प्राकृत के तीन प्रकार हैं-i. पालि ii. अर्धमागधी i. शौरसेनी। i. पालि - भगवान् बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ है, उन्हें त्रिपिटक कहते हैं। इन ग्रन्थों की भाषा को पालि कहा गया है। पालि का अर्थ है, पंक्ति, परिधि या सीमा। यह पालि भाषा आर्ष है। पालि मूलतः मगध की भाषा थी। पालि को प्राकृत भाषा का ही एक प्राचीन रूप स्वीकार किया जाता है। पालि भाषा बुद्ध के उपदेशों तथा तत्सम्बन्धी साहित्य तक ही सीमित हो गयी थी। इसी कारण पालि भाषा का आगे चलकर अन्य भाषाओं की तरह विकास नहीं हुआ, यद्यपि प्राकृत की सन्तति निरंतर बढ़ती रही। पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है। अतः प्राचीन भारतीय भाषाओं को समझने के लिये पालि भाषा का ज्ञान आवश्यक है। ii. अर्धमागधी यह मान्यता है कि महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये थे। उन उपदेशों को अर्धमागधी और शौरसैनी प्राकृत में संकलित किया गया है। कुछ विद्धान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिये कहते हैं कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं। iii. शौरसेनी शूरसेन प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसेनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग है। प्राचीन आचार्यों षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौरसेनी प्राकृत में की है और आगे भी अनेक आचार्यों ने शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रंथ लिखे जाते रहे हैं। नाटकों में पात्र शौरसेनी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसका प्रचार मध्यप्रदेश में अधिक था। 2. शिलालेखी प्राकृत शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में प्राप्त होते हैं। जन समुदाय में प्राकृत भाषा बहु प्रचलित थी और राजकाज में भी उसका प्रयोग होता था। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही वे तत्कालीन संस्कृति के जीते जागते प्रमाण भी हैं।

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