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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
पाठकों के पत्र........
___ 'अनेकान्त' का मैं नियमित पाठक हूँ। पिछले कुछ वर्षों से अनेकान्त' में जो सुधार देखने में आ रहा है, उसमें नई ऊर्जा एवं नवीन शोधकर्ताओं को स्थान देकर उनका उत्साहवर्धन कर रहे हैं। भिन्न-भिन्न विषयों पर नई सोच के साथ समाज को अवगत कराने में आपकी पत्रिका का योगदान अवश्य ही सराहनीय है। लेखों के चयन आदि के लिए संपादक/सम्पादक मण्डल को मेरा साधुवाद।
समाज में श्रावकों/ श्रमणों के प्रति किसी शिथिलता को महसूस कर, प्रभावी ढंग से प्रस्तुत कर आगाह करने में आपकी पैनी नजर से विसंगतियों के प्रति समाज में जागरूकता लाना भी प्रशंसनीय है।
- अनिल जैन, राजधानी पेपर डिस्ट्रीब्यूटर्स,
१०९, प्रकाश महल, दरियागंज, नई दिल्ली-०२ शोध जैन पत्रिकाओं में अनेकान्त' का स्थान वरीयता को प्राप्त है। जैनदर्शन के विभिन्न विषयों के अलावा धर्मिक-अनुष्ठान संबन्धी आलेख (सन्दर्भ अंक ६७/३) प्रकाशित होते रहते हैं। पंचकल्याणक की विभिन्न क्रियाओं में आ रहीं विसंगतियों पर पं. विनोदकुमार रजवाँवास का लेख पठनीय है। वीरसेवामन्दिर की सकारात्मक गतिविधियों में अनेकान्त' का प्रकाशन स्तुत्य है। सम्पादक एवं प्रकाशकगण बधाई के पात्र हैं।
- पं. संतोषकुमार जैन, व्याख्याता
राज. सीनियर सेकण्डरी स्कूल, सीकर (राज०) अनेकान्त का जुलाई-सितम्बर २०१४ का अंक प्राप्त हुआ। डॉ. जयकुमार जैन का 'पुरातत्त्व एवं नवनिर्माण' पर सम्पादकीय लेख पढ़ा। लेख बहुत अच्छा है। देहरादून की जैन धर्मशाला की स्थिति के बारे में लिखा। वर्तमान में जैन धर्मशालाओं की स्थिति दयनीय होती जा रही है जिस पर समाज को ध्यान देना चाहिए। मुखपृष्ठ पर वीर सेवा मन्दिर का लोगो नयनाभिराम लगा। प्रायः सभी शोधालेख स्तरीय एवं प्रामाणिक लगे।
- सचिन जैन, एकाउण्टेंट, बड़ौत (उ.प्र.)