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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 ऋण आदि प्रचलन में थे। राज्य द्वारा अर्जित अधिकांश भाग राजकोश में जमा रहता था और कुछ धन सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय कर दिया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग और शिक्षा व्यवस्था :
प्राचीन कालीन से मानव जीवन में शिक्षा का स्थान सर्वोपरि रहा है। बालक को आठ वर्ष का होने पर ज्ञानार्जन के लिए गुरु के पास भेजा जाता था जहाँ वह बहत्तर कलाओं की शिक्षा प्राप्त करता था। शिक्षा के विषय मुख्यतः अध्यात्म केन्द्रित थे। इनके अलावा वास्तुशास्त्र, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, संगीत, चित्रकला, वाणिज्यशास्त्र आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी।
गुरु शिष्य के सम्बन्धों पर ही सफल शिक्षण व्यवस्था की नींव आधारित होती है। महावीर-मेघ और शैलक-पंथक जैसे प्रसंग क्रमशः वात्सल्य व समर्पण के प्रतिमान है। जहाँ एक ओर गुरु शिष्य को डूबने से बचाता है, वहीं दूसरी ओर शिष्य गुरु को अपनी गरिमा का भान करवाता है। ज्ञाताधर्मकथांग और कला :
ज्ञाताधर्मकथांग में बहत्तर कलाओं का विवेचन किया गया है। उत्सव-महोत्सव आदि के अवसर पर नर-नारी अपनी कलाओं का प्रदर्शनकर लोगों का मनोरंजन करते थे। लोग सौंदर्य प्रेमी थे. अतः प्रसाधन से जडी विभिन्न कलाएं भी प्रचलन में थीं। पुष्करिणी, प्रसाद, चित्रसभा, भोजनशाला, मार्ग, नगर आदि का उल्लेख वास्तुकला के अस्तित्व को प्रमाणित करता है। उस समय के लोग युद्ध कला में भी पारंगत थे। देवदत्ता गणिका चौंसठ कलाओं में निपुण थी। तत्कालीन कलाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि संस्कृति में कलाओं की प्रधानता थी। लोगों का जीवन कलाओं से अनुप्रमाणित होने के कारण सरस था।
इस प्रकार भारतीय संस्कृति के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षिक, कला, भौगोलिक तथा आर्थिक अवदानों को स्पष्ट करने वाले इस छठे अंग आगम का अध्ययन हमें हमारी पुरातन धरोहर अर्थात् सांस्कृतिक विरासत का ज्ञान कराने वाला होने से अत्यन्त उपयोगी है।