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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 देशना कैसे संभव है ? अर्थात् नहीं है।
वाणी का स्वभाव होता है कि वह अपने सामान्य अर्थ का प्रतिपादन तथा अन्य वागर्थ के प्रतिषेध में निरंकुश होता है अर्थात् अपने विषय का प्ररूपण करता है और तदन्य विषय का निराकरण करता है। यदि वचन सर्वथा अन्यापोह रूप अर्थ का ज्ञापन करें अर्थात् सर्वथा निषेध ही करे तो वह आकाश कुसुम के समान ही होगा। अर्थात् वह अवस्तु ही कहलायेगा। ___वस्तु' है इत्यादि सामान्य वचन अन्यापोह रूप विशेष के कथन में प्रवृत्त होते हैं, यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि अन्यापोह शब्द का वाच्य-अर्थ उपलब्ध नहीं होता है। इसलिये अन्यापोह के प्ररूपक शब्द मिथ्या हैं। इसलिये अभिप्रेत अर्थ विशेष की प्राप्ति के लिये स्यात्कार से मुद्रांकित और सत्य के लाञ्छन से चिह्नित स्याद्वाद ही माना गया है।
वस्तुतः वही विधेयवाक्यस्वरूप वाद (वचन व्यवहार) अभीष्ट अर्थ को द्योतित करने में कारण हो सकता है, जो प्रतिषेध्य का अविरोधी होता है। विधेय को प्रतिषेध्य का अविरोधी मानने पर ही वस्तु में आदेयत्व और हेयत्व सिद्ध होता है जिससे वह वस्तु उपादेय या हेय स्वीकृत हो जाती है। इस प्रकार स्याद्वाद संस्थिति ग्रंथकार ने यहाँ की है।
अन्त में समापन करते हुए ग्रंथकार करहते हैं- इस प्रकार यह आप्तमीमांसा ग्रंथकार के द्वारा हित चाहने वाले जिज्ञासुजनों के लिये सम्यक और मिथ्या उपदेश और अर्थ में विशेष (भेद) ख्यापित करने के लिये की गयी है। यथा -
"इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम्।
सम्यड्.िमथ्योपदोशार्थविशेषप्रतिपत्तये।।७४ संदर्भ: ६७. तदेव ८८-८७
६८. तदेव ९०
६९. तदेव ९१ ७०. तदेव ९२-९५
७१. तदेव ९६-९८ ७२. तदेव ९९-१०० ७३. तदेव १०१-१०२
७४. तदेव ११४
- अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग, रा० संस्कृत संस्थान, जयपुर
(राजस्थान)