Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 364
________________ 76 अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 कह सकते हैं। तथा अशुद्धि को निमित्त मूलक योग्यता की मुख्यता से कहा जाना संभव है। इससे कर्मबंध के लिये अपेक्षित कारणों की प्रादुर्भूति जीवों में उनके शुद्धयशुद्धि रूप हेतु से संभव हो जायेगी। आचार्य समन्तभद्र स्वयं शुद्धि और अशुद्धि को शक्ति यानि योग्यता से परिभाषित करना चाहते हैं । उनके अनुसार शुद्धि और अशुद्धि की योग्यता रूप शक्ति उनकी अपनी है जैसे मूंग आदि में पकने या न पकने की शक्ति स्वयं की ही होती है। आचार्य समन्तभद्र इन दोनों शक्तियों को सादि और अनादि बताकर उनकी त्रैकालिक एवं किंञ्चित् कालस्थिति को भी सूचित कर रहे हैं। कर्मबंध के लिये आत्मा में दोनों ही शक्तियों की व्यक्तियाँ अर्थात् परिणतियां स्वभावयोग्यता से उपादान एवं निमित्त कारणों की समग्रता में होती रहती हैं। यही प्रत्येक जीव की स्वभाव योग्यता है । स्वभाव को तर्क का विषय नहीं बनाया जा सकता है (स्वभावोऽतर्कगोचरः) । इतनी गंभीर और महत्त्वपूर्ण प्ररूपणा करने के उपरांत स्तोत्रकार कहने लगते है। कि हे भगवन् ! आपका तत्त्वज्ञान यानि वास्तविक या वस्तुमूलक यथार्थ ज्ञान अथवा सबको युगपत् जानने वाला केवलज्ञान यहाँ प्रमाण है। उस केवलज्ञान के सहचर में हुये उपदेश को सुनकर गणधरों द्वारा प्रज्ञापित द्रव्यश्रुत को या तत्सहचर जायमान क्रमवर्ति श्रुतज्ञान को प्रमाण कहते हैं। यह स्याद्वाद गर्भित नयों संस्कारित है। इसी श्रुतज्ञान के बल से मैंने उपर्युक्त कथन किया है। से यहाँ केवलज्ञान रूप प्रमाण का फल तो उदासीनता या वीतरागता से जानने रूप उपेक्षा है तथा शेष का यानि तत्त्वज्ञान रूप श्रुतज्ञान का फल पदार्थों को जानकर उनके ग्रहण त्याग की बुद्धि बनाना है अर्थात् कौन पदार्थ या क्रिया ग्रहण योग्य है अथवा त्याग योग्य है, यह जानना है। तथा श्रुत ज्ञान का फल उपेक्षा भी है। अज्ञाननाश तो सभी प्रमाणों का साक्षात् फल है ही। कारिकायें इस प्रकार हैं “तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम्। क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम्॥ उपेक्षाफलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वा वाऽज्ञाननाशे वास सर्वस्याऽस्य स्वगोचरे ।। ७३

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