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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
रानी के आख्यान में मुनिगुप्त ने दक्षिण मथुरा से विद्याधर श्रावक के साथ रेवती रानी को आशीर्वाद भेजा । तथा उसी कथानक में दूसरी ओर भवसेन मुनि जो ग्यारह अंग के धारी थे परन्तु मिथ्यादृष्टि थे उनके वंदना भी नहीं की । इससे यह भी प्रतीत होता है कि सद्गुरुओं का आदर जग में सभी जगह होता है तथा सद्गुरु भी सम्यग्दृष्टि को सदैव आशीर्वाद आदि उपेदश दिया करते हैं तथा मिथ्यादृष्टियों को सम्मान भी नहीं देते हैं। दूसरे कथानक में विशाख मुनि की रानी चेलना के द्वारा वैयावृत्ति सद्गुरु का आदर है। वारिषेण मुनि का नाम भी सच्चे गुरु की श्रेणी में गिना जाता है। विष्णुकुमार मुनि ने तो सच्चे गुरु होने का प्रमाण जग के सामने दर्पण के समान प्रतिबिम्बित किया है। जिसमें उन्होंने अपने गुरु महापद्म से आज्ञा लेकर अंकपनाचार्य आदि ७०० साधुओं का उपसर्ग दूर किया। साधु भी उपसर्ग दूर करने में समर्थ होते हैं। तृतीय उदाहरण में वज्रकुमार ने धर्म की प्रभावना कराकर सच्चे गुरु होने का संकेत दिया है। सोमदत्त मुनि ने मुनि के अट्ठाईस मूलगुणों का विस्तृत वर्णन करके गुरु के महत्त्व को प्रदर्शित किया है। गुरुनिह्नव में जहाँ कालसंदीव मुनि को गौरसंदीव मुनि का गुरु बताया है वहीं पूर्व गृहस्थ अवस्था में कालसंदीव को चंदप्रद्योत का गुरु कहा है यहाँ पर गौर संदीप के दीक्षा वह शिक्षा गुरु के रूप में कालसंदीव का वर्णन है वहीं पर कालसंदीव को चंदप्रद्योत राजा का शिक्षा गुरु होने का सम्मान भी दिया गया है। इसी प्रकार उपधान कथा, ज्ञान बहुमान कथा, व्यंजनहीन कथा, अर्थहीन कथा, व्यंजन अर्थहीन कथा, व्यंजन अर्थ-उभय शुद्धि कथा में शिक्षा गुरु का नामोल्लेख किया है जो राजकुमारों को पढ़ाने के लिए राजमहलों में जाया करते थे तथा राजमहलों में उन्हें पूरा सम्मान प्राप्त होता है। इस प्रकार गुरु को राजगुरु होने का गौरव भी प्राप्त होता था । कहकोसु में दीक्षा गुरु और शिक्षा के अतिरिक्त विद्या गुरु का भी आख्यान प्राप्त होता है। विद्याधर युगल का चाण्डाल के रूप में सुप्रतिष्ठित साधु को विद्या देना तथा अपने को गुरु के सम्मान के रूप में स्वीकार करने की शर्त रखना । विद्यागुरु होने के संकेत देते हैं । १४ मनोरंजन एवं धार्मिक उत्सव
प्रकृति के अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य की आमोद-प्रमोद में अधिक रुचि होती है। प्राचीन समय का मानव आज की तरह व्यस्त नहीं था वह मनोरंजन के लिए अनेक प्रकार की कलाएं सीखता था, तथा स्वयं भी अनेक कलाओं का विकास करता था। इसके अतिरिक्त निरंतर कार्य करने
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