Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ 73 अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 और स्वयं को सुखी करने से नियमतः पाप बंधती है तो वीतरागी और विद्वान् मुनि को भी बंध होना चाहिये क्योंकि वीतरागी और विद्वान् मुनि स्वयं को दुःख देने में निमित्त बनता है। अतः उसे पुण्य का बंध होना चाहिये। तथा अपने को सुखी करने में निमित्त मिलाता है और स्वयं भी सुखी होने का प्रयत्न करता है और उसे पाप बंधना चाहिये। वास्तव में पुण्य पाप के बंध के लिये उपर्युक्त को सर्वथा कारण नहीं माना जा सकता है। कथञ्चित् ही उन्हें बंध हेतु माना जा सकता है। तथा उपर्युक्त दोनों को सर्वथा पुण्य पाप में हेतु मानने पर विरोध खड़ा हो जाता है और उनकी एकता स्वरूप उभयैकान्त बन नहीं सकता। अतः वह भी ठीक नहीं है। तथा अवाच्य है ऐसा कहकर भी बचा नहीं जा सकता है। अतः सर्वथा अवाच्यतैकान्त भी समीचीन नहीं हो सकता है। यथार्थतः प्रतिपत्ति यह है कि स्व और पर सम्बन्धी सुख-दुःख यदि विशुद्धि और संक्लेश परिणामों के अंग या निमित्त बनते हैं तो विशुद्धि से पुण्य का आस्रव होता है और संक्लेश परिणामों से पाप का आस्रव होता है। पूर्वोक्त प्रवृत्तियों में भी विशुद्धि और संक्लेश परिणामों की भूमिका पुण्य पाप बंध में है। सुख दुःख में निमित्त बनने की क्रिया या प्रवृत्ति मात्र नहीं। यहाँ समन्तभद्र की कारिकायें इस प्रकार हैं “पाप ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यञ्च सुखतो यदि। अचेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः।। पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात् पापं च सुखतो यदि। वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताम्यां युञ्जन्निमित्ततः।। विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्। अवाच्यतैकान्ते प्युक्ति वाच्यमिति युज्यते।। विशुद्धिसंक्लेशांगऽचेत् स्वपरस्थं सुखासुखम्। पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेव्यर्थस्तवार्हतः।।७० दशम परिच्छेद : __इस परिच्छेद मं १९ कारिकायें अवतरित हुई हैं। प्रारंभ में तीन कारिकाओं में अज्ञान मात्र से बंध होता है और अल्पज्ञान से मोक्ष होता है, इन दो ऐकान्तिक मान्यताओं का खण्डनकर मोह रसहित अज्ञान से बंध होता है

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384