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अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
पुरुषार्थ की नियामकता या निमित्त-नैमित्तिकता तो होती ही है। अगर पुरुषार्थ (पौरुष) से ही पुरुषार्थ की सिद्धि मानेंगे तो सभी प्राणियों में पुरुषार्थ का होना अमोघ - अपरिहार्य या अचूक हो जायेगा तथा पुरुषार्थ कभी भी निष्फल नहीं हो सकेगा।
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इसी प्रकार सर्वथा दैवैकान्त और सर्वथा पुरुषार्थैकान्त दोनों से भी अर्थसिद्धि नहीं मानी जा सकती है क्योंकि सर्वथा दैवैकान्त और पुरुषार्थैकान्त की एकात्मता उनमें परस्पर विरोध होने से नहीं हो सकती है तथा यह भी नहीं कहा जा सकता अर्थसिद्धि का कारण अवाच्य है अर्थात् कहा नहीं जा सकता है यह अवाच्यतैकान्त भी सही नहीं है क्योंकि 'वाच्य नहीं है' इस उक्ति से वह वाच्य हो जाता है । ६८
कथञ्चित् दैव और कथञ्चित् पुरुषार्थ से इष्टानिष्ट अर्थ की सिद्धि होती है। अपेक्षा से दोनों की ही भूमिका कार्यसिद्धि में समझी जाती है यह स्पष्ट करते हुये वे लिखते हैं
“अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः ।
बुद्धि पूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ।। १६९
अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कार्य होने की अपेक्षा होने पर इष्ट या अनिष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह अपने दैव से होती है और बुद्धिपूर्वक कार्य होने की अपेक्षा होने पर इष्ट अनिष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह स्वपुरुषार्थ से होती है। यहाँ बुद्धि पूर्वक कार्य करने में प्रयत्न या पुरुषार्थ मुख्य है और दैव या भाग्य गौण है। तथा अबुद्धि पूर्वक कार्य होने की स्थिति में दैव मुख्य है और पौरुष या पुरुषार्थ गौण है - यह समझना चाहिये। नवम परिच्छेद -
इस परिच्छेद में चार कारिकाओं से आचार्य समन्तभद्र ने पुण्य और पाप बंध की अवधारणा को स्पष्ट किया है। वे कहते हैं कि यदि सर्वथा ही यह मान लिया जाये कि दूसरों में दुख होने से उसमें निमित्त बनने वाले को तथा सुख होने से उसमें निमित्त बनने वाले को पुण्य का बंध होता है तो अचेतन पदार्थ एवं कषाय रहित मुनि जन दूसरों के सुखी होने में या दुखी होने में निमित्त बनते हैं तो उन दोनों 'भी पुण्य पाप का बंध होना चाहिये ।
इसी प्रकार यदि स्वयं को दुःखी करने से निश्चित ही पुण्य बंधा है