Book Title: Anekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 359
________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 71 गतांक से आगे...... पं. जुगलकिशोर 'मुख्तार' स्मृति व्याख्यानमाला २२ दिस. २०१३ में दिया गया व्याख्यान - आचार्य समन्तभद्र का आप्त मीमांसा प्रो. श्रीयांश कुमार सिंघई, जयपुर अष्टम परिच्छेद : इस में चार कारिकाओं द्वारा आचार्य समन्तभद्र ने अर्थसिद्धि के लिए `दैव (भाग्य) और पुरुषार्थ की भूमिका पर विचार किया है। उनके अनुसार न तो मात्र दैव से ही अर्थ की सिद्धि होती है और न ही केवल पुरुषार्थ से ही अर्थसिद्धि मानी जा सकती है। क्योंकि दैव भी पुरुषार्थ सापेक्ष होता है और पुरुषार्थ भी दैव सापेक्ष होता है । दैव की सिद्धि पुरुषार्थ से ही तो होती है और पुरुषार्थ भी दैव की छत्रच्छाया में किया जाता है। यदि सर्वथा ही दैव और पुरुषार्थ को कार्यसिद्धि या अर्थसिद्धि का कारण मानेंगे तो क्या होगा ? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य समन्तभद्र ने यहाँ दिया है. ‘दैवादेवार्थसिद्धिच्श्रेद्दैवं पौरुषतः कथम्। देवतश्श्रेदर्निमोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥” पौरुषादेव सिद्धिश्श्रेत् पौरुषं दैवतः कथम् । दैवतश्श्रेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥ ६७ - इन कारिकाओं से स्पष्ट होता है कि यदि दैव यानि भाग्य से ही अर्थसिद्धि स्वीकार करेंगे तो पुरुषार्थ (पौरुष) से भाग्य की सिद्धि होती है, यह क्यों माना जाता है ? पुरुषार्थ जैसा होता है दैव या भाग्य (प्रारब्ध) भी वैसा ही होता है। दैवेकान्तपक्ष के दुराग्रह से यदि दैव से ही दैव की सिद्धि मानेंगे तो पुरुषार्थ निष्फल हो जायेगा और अनिर्मोक्ष अर्थात् मोक्ष के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। यदि पौरुष या पुरुषार्थ यानि प्रयत्न से अर्थसिद्धि मानी जाये तो दैव अर्थात् भाग्य या प्रारब्ध के कारण से पुरुषार्थ क्यों होता है ? अथवा पुरुषार्थ के होने में दैव को कारण क्यों माना जाता है ? अनुकूल प्रतिकूल दैव से

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