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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 किया है लेकिन इसके अनुशीलन से कुछ झलक तो अवश्य ही पाई जाती है। कहकोसु में चित्रित सामाजिक जीवन की झांकी निम्न रूप में हैं।
समाज के घटक तत्त्व : वर्ण व्यवस्था -
वर्ण शब्द की व्युत्पत्ति ‘वृ' (वृञ् वरणे) धातु से मानी गई है, जिसका अर्थ होता है चयन या चुनाव करना। इस दृष्टि से व्यक्ति अपने जिस व्यवसाय का चुनाव करता है, उसी के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होता है। राज्य एवं समाज के रूप में समन्वय लाने के लिए कार्यगत प्रवीणता एवं कुशलता हेतु वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ।वर्ण व्यवस्था की संस्थापना वृत्ति और आजीविका को व्यवस्थित रूप देने के लिए थी न कि उच्चता व नीचता के कारण।
जैन परम्परा के अनुसार यौगलिकों के समय वर्ण व्यवस्था नहीं थी। राजा नाभिराज ने प्रजा की आजीविका की समस्या का समाधान करने के लिए राजा आदिनाथ को आदेश दिया तथा राजा आदिनाथ ने क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र इन तीन वर्गों की स्थापना कर कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात किया। क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों का प्रमुख कर्म असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या तथा वाणिज्य निश्चित किया गया। लेकिन कालान्तर में शिक्षा प्रदान करने तथा धार्मिक क्रियाकाण्ड व अनुष्ठान को संपन्न करने के लिए पृथक वर्ग की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी, इसके फलस्वरूप भरत चक्रवर्ती ने ऋषभदेव के केवलज्ञानोपरान्त ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। कहकोसु में चारों वर्गों का उल्लेख प्राप्त होता है। तथा वैश्य वर्ण में हरिदत्त वैश्य, सोमदत्त मुनि का गृहस्थ अवस्था का कुल वैश्य था। शूद्र वर्ण में यमपाल चाण्डाल का कथानक, तथा ब्राह्मण वर्ण में विष्णुकुमार मुनि कथा में चार ब्राह्मण मंत्रियों का कथानक दृष्टव्य है। क्षत्रिय -
क्षति से बचाने वाला वर्ण ही 'क्षत्रिय' इस सार्थक नाम से प्रसिद्ध हुआ। राज्य एवं समाज की रक्षा का भार क्षत्रिय वर्ण पर था। उनका वर्णगत गुण शासन और सैन्य कर्म था। न्याय की स्थापना तथा अधर्मियों को दण्ड देना क्षत्रियों के कर्तव्य क्षेत्र में सम्मिलित था। क्षत्रिय वर्ण का प्रमुख कर्त्तव्य भुजा में शस्त्र धारण करना था। शस्त्र धारण करने का प्रमुख उद्देश्य निर्दोष जीवों को क्षति न पहुँचा शरणागत रक्षण था। कहकोसु की दस संधियों में