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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
43 युक्ति भी समझ लेता है परंतु पशु का रुदन और चीत्कार इस बात का द्योतक है कि बिना अपराध किये मृत्यु दण्ड को प्राप्त पशु कितना निरीह, लाचार और जीवन बचाने में असमर्थ है। मनोविज्ञान की दृष्टि से यही विवशता पशु के अंदर क्रोध और बदले की भावना पैदा कर देती है। वध के समय असीम वेदना से छटपटाता पशु, अनंतानुबंधी क्रोध पालकर उस मांसाहारी को बददुआएँ देता है।
जानवरों से फैलने वाला घातक, संक्रामक रोग ‘जूनोटिक डिसआर्डर' हैं। इन बीमारियों के खतरनाक वायरस, बैक्टीरिया, पैरासाइट और कवक जानवरों के शरीरों में पकते हैं। जानवरों के संपर्क में रहने वालों में खून से शरीर में संक्रमण होने या इन जानवरों के प्रदूषित मांस भक्षण से संक्रमित होने वाले इंसान में दिमागी विकृति आ जाती है। इन बीमारियों में वे पुराने इंफेक्शन भी शामिल हैं जिन्हें इलाज के बाद अलविदा मान लिया गया था। यह ज्यादा इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि फिर से सक्रिय होने वाले वायरस पर पुरानी एंटीबायटिक दवाइयां लगभग बेअसर हो जाती हैं।
संक्रमण के साथ-साथ, वध प्रक्रिया के दौरान उपजी उच्च आवृत्ति वाली ‘गामा' किरणों से विच्छिन्न आहार ससे नए-नए रूप क बीमारियों का असर दुनिया भर में देखा जा रहा है। इनकी पहचान में काफी समय लग जाता है, ऐसे में इलाज से पहले ही थे बीमारियां फैलने लगती है।
ब्रिटेन में दिमाग, रीढ़ की हड्डी और पाचन-तंत्र पर घातक प्रभाव वाले रोगियों का परीक्षण सर्वेक्षण सन १९८९ में किया गया तो सभी रोगियों द्वारा कुछ महिनों से लेकर कई सालों तक मवेशियों का संक्रमित मांस खाना पाया गया। इस बीमारी का नाम दिया गया 'मेड काऊ डिजीज'।
उपरोक्त विवरण का निष्कर्ष संभवतः आश्चर्यजनक लगे कि पशु-वधगृह में लाने तक की प्रक्रिया और पशु के प्रवेश के साथ ही प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष परन्तु सम्बद्ध पक्षों का कर्म-बंध और फलादान की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। सामान्य जीवन शैली में, शरीर में बीटा तरंगें व्याप्त रहती हैं। पशु वधगृह में प्रवेश करने पर, मृत्यु भय से आक्रांत पशु को अतिरिक्त बल प्रदान करने के लिए एड्रिनल ग्रंथि जो ‘एड्रेनिलिन' स्राव उत्सर्जित करती है,