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अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। निक्षेप का दूसरा नाम न्यास भी है। तत्त्वार्थसूत्रकार
ने निक्षेप के स्थान पर न्यास शब्द का प्रयोग किया है
४. प्रमाण विधि संशय आदि से रहित वस्तु का पूर्ण रूप से ज्ञान कराना प्रमाण विधि है। इस विधि के अंतर्गत ज्ञेय वस्तु के विषय में संपूर्ण जानकारी दी जाती है।
जैन आचार्यों ने प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया है। सर्वार्थसिद्धि में प्रमाण की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- "जो अच्छी तरह मान करता है, जिसके द्वारा अच्छी तरह मान किया जाता है या प्रमितिमात्र प्रमाण है।७ कसायपाहुड के अनुसार- "जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाए, उसे प्रमाण कहते हैं।
५. नय विधि वक्ता के अभिप्राय या वस्तु के एकांशग्राही ज्ञान को नय कहते हैं।
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धवला ने नय नय का निरुत्यर्थ इस प्रकार दिया है जो उच्चारण किए गए अर्थपद और उसमें किए गए निक्षेप को देखकर अर्थात् समझकर पदार्थ को ठीक निर्णय तक पहुँचा देता है, इसलिए वह नय कहलाता है।
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तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी - जीवादि पदार्थों को जो ले जाते प्राप्त कराते हैं, बनाते हैं, अवभास कराते हैं, उपलब्ध कराते हैं, प्रकट कराते हैं, उसे नय कहते हैं।" मूलभूत नय दो हैं १. द्रव्यार्थिकनय २. पर्यायार्थिकनय . । द्रव्य नित्य है, अतएव नित्यता को ग्रहण करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय कहलाता है। पर्याय अनित्य है, अतः पर्याय को ग्रहण करने वाला नय पर्यायार्थिक नय कहलाता है।
६. (क) स्वाध्याय विधि विशिष्ट ज्ञान प्राप्ति के लिए स्वाध्याय विधि का उपयोग किया जाता था । आचार्य जिनसेन ने स्वाध्याय की महिमा का वर्णन महापुराण में इस प्रकार किया है- 'स्वाध्यायेन मनोरोधस्ततो क्षाणां विमिर्जय.......' अर्थात् स्वाध्याय करने से मन का निरोध होता है और मन का निरोध होने से इन्द्रियों का निरोध होता है।
तत्त्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के लिए पांच तरीके बताये गये हैं। वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः १ अर्थात् १. वाचना २. पृच्छना ३. अनुप्रेक्षा ४. आम्नाय ५. धर्मोपदेश ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय हैं।