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अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
जल गालन का प्रयोजन :
प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बोस ने एक बूँद जल में, आधुनिक विज्ञान के आधार पर ३९४५० बैक्टीरिया जीवों की सिद्धि की है। इसके अतिरिक्त जिन जलकायिक जीवों के शरीररूप बहुबिन्दु हैं, वे उनकी दृष्टि विषय ही नहीं है। उनका प्रमाण अंगुल असंख्यात आगम में कहा गया है। चिकित्सा विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि किसी भी रोग के मूल में, रोग विशेष से संबन्धित बैक्टीरिया होते हैं। अतः जलगालन निरोग शरीर बनाए रखने में सहायक है।
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भोजन ग्रहण करने के पूर्व और बाद में, भारतीय परिवेश में जिस शुद्धता का ध्यान रखा जाता रहा है, वह निरोग तन-मन का मूल है। मार्डन होने के नाम पर छुरी, काँटे, चम्मच के प्रयोग से जहाँ तन-मन दूषित हो रहे हैं, वहीं डाक्टर्स और अस्पताल की बढ़ती संख्या के अनुपात से अधिक रोग और रोगी बढ़ रहे हैं।
एक प्रसिद्ध कहावत है- “जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन, जैसा पीवे पानी वैसी बोले वानी” | वास्तव में पुद्गल का असर जीव के भावों में और जीव के भावों का असर पुद्गल पर पड़ता है। पुद्गल के अशुद्ध उपयोग के कारण आत्मा की शुद्ध शक्ति आच्छादित हो जाती है । शरीर निर्बल, अस्वस्थ एवं खेदित हो जाता है, थक जाता है। आत्मा के शुद्धोपयोग से मन प्रसन्न रहता है, शरीर प्रफुल्लित हो जाता है। यही प्रफुल्लता शरीर की निरोगता का आधार है। इस निरोगता में सहायक शुद्ध खान-पान रहता है जिसका असर सर्व शरीर पर पड़ता है - उपयोग पर भी पड़ता है। शुद्धोपयोग ही मोक्षमार्ग है जिसकी प्राप्ति का प्राथमिक आधार जल गालन है।
जलगालन की क्रिया में यद्यपि एक बार जलकायिक जंतुओं की हिंसा होती है, परन्तु मर्यादा तक उसमें ऐसे जीव उत्पन्न नहीं होंगे, न फिर उनके घात की आवश्यकता होगी। अप्रत्यक्ष रूप से शरीरधारी छहों जाति के प्राणियों की जीवरक्षा हो जाती है जो अहिंसा और दया का पालन है। यह आसाधारण स्थिति अविरत श्रावक की होती है जिसका सम्यक्त्व निर्मल है और ज्ञान सम्यक् है। आचार्य तारण तरण ने न्यान समुच्चय सार में कहा है
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जल गालन उवसं, प्रथमं संमत सुध भावस्स । चित्तं सुध गलंतं, पच्छिदो जलं च गालम्मि ।। २९० ।।