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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
द्रव्य से कथंचित् ऐक्य है, क्योंकि उनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इनमें जो भेद या नानात्व पाया जाता है, उसके निम्न कारण है३५१. द्रव्य और पर्याय में परिणाम का भेद है।
२. दोनों में शक्तिमान और शक्तिभाव का भेद है।
३. दोनों में संज्ञा का भेद है।
४. दोनों में संख्या का भेद है।
५. दोनों में स्वलक्षण का भेद है और
६. प्रयोजन का भेद है।
पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्याय अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसलिए दोनों को वास्तविक मानना आवश्यक है । इस प्रकार तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य में आचार्य विद्यानंद द्वारा विभिन्न एकान्तवादियों द्वारा मान्य द्रव्य के लक्षण की समीक्षा करके सूत्रकार द्वारा बताये गये द्रव्य लक्षण को ही युक्तियुक्त सिद्ध किया है। तीर्थकरों के परम्परा से प्राप्त अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्व के चिंतन के आलोक में सत्, द्रव्य, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य गुण और पर्याय आदि वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक पारिभाषिक शब्दों की व्युत्पत्तिपरक प्रमाणिक अर्थसंगति बैठाकर स्याद्वाद पद्धति से स्वसिद्धान्त को मण्डित किया है तथा न्यायवैशेषिक, बौद्ध, सांख्ययोग, ब्रह्माद्वैत आदि विभिन्न संप्रदायों के द्रव्य स्वरूप विषयक एकपक्षीय दृष्टिकोणों के प्रत्येक पक्ष को गंभीरता से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनमें गुण दोषों के उद्भावन पूर्वक द्रव्य के स्वरूप की कथंचित् नित्यानित्यात्मक एवं भेदाभेदात्मक व्यवस्था दी है। यद्यपि कि आचार्य विद्यानंद से पूर्व उन्हें आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक जैसे प्रखर तार्किक जैन नैयायिकों का प्रगाढ़ चिंतन उपलब्ध था, पर जैनेत्तर एकान्तवादी दर्शनों के सिद्धान्तों का विस्तृत वर्गीकरण कर उनका विस्तृत समीक्षण प्रस्तुत किया जाना उनके अद्भुत वैदुष्य का परिचायक है।
संदर्भ :
१. आचार्य विद्यानंद, त० श्लोक, पुस्तक ६, भाषा टीकाकार पं. माणिकचंद कौन्देय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, जीवराज जैन ग्रंथमाला, सोलापुर, द्वि० सं० सन् २०११ २. आचार्य उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, ५.२९
३. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ५.३०