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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 कि “जाती है" प्रकार के संरचनात्मक साँचो के स्रोत हमें प्राकृत क्रिया रूप संरचनाओं में देखने को मिलते हैं और खासकर “आदि" जैसे साँचो में जो बाद में “जाता” में बदल गया। प्राकृत में/शौरसेनी में यह पृथक् नहीं परन्तु पृथक् दिख रहा है।
प्राकृत में हमें अनेक ऐसे वाक्य भी मिलते हैं जो कृदन्तीय प्रयोगों में समाप्त होते हैं, संस्कृत में भी इस कृदन्तीय वाक्यों की समान परंपरा रही है। परन्तु यह साँचा आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में इसी क्रम में नहीं मिलता, फलतः कृदन्तीय प्रयोग सीमित हो गया और इसका स्थान समापिका क्रिया ने ले लिया। यथा"अनुसूया- अम्मो ! आवेअक्खलिदाए गईए पब्मटं मे हत्थादो
पुष्फभाअणं।" अम्मा ! आवेग से स्खलित गति के कारण मेरे हाथ से
पुष्पभाजन गिर गया। उपर्युक्त उदाहरण का “पब्भटटं" रूप हिन्दी में “गिर गया" क्रिया रूप के द्वारा स्थापन्न हो गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि कृदन्तीय प्रयोग सीमित हो गए। संदर्भ : १. चारुदत्त (तीसरी तिाब्दी), भास, टी०गणपति शस्त्र, चिन्द्रम, १९२२पृ०८-१२ २. उपर्युक्त षट्खण्डागम, धवला टीका समन्वित, सम्पादकःहीरालाल जैन, जीवस्थान सत्प्ररूपणा।
खण्ड-१, प्रकाशकःश्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्र शितावराम, अमरावती, १९३९पृ०१७। चारुदत्त, भास, उपर्युक्त विवरण। कर्पूरमंजरी, राजशेखर, सम्पा० स्टेन कोनो, मोतीलाल बनारसीदास, १९६३, पृ०१६-१९। उपर्युक्त, पृ०१९-२२॥ उपर्युक्त। अभिज्ञानशाकुन्तलम्, कालिदास, चतुर्थ अंक का विषकम्भक
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- लखनऊ (उ०प्र०)