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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 पर कोई असर नहीं पड़ता है। अद्वैत वेदान्ती ब्रह्म को एक मात्र यथार्थ मानकर जीव को उसका विवर्त मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि से कर्ममलयुक्त संसारी है। संसारी दशा में वह अशुद्ध है। वह पुरुषार्थ के बल से कर्मों को नष्ट कर निर्मल या शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है। निश्चय नय की अपेक्षा आत्मा को निर्मल कहा गया है। इससे उन विचारकों की मान्यताओं का खण्डन किया गया प्रतीत होता है, जो एकान्ततः आत्मा को निर्मल ही मानते हैं या आत्मा का कभी भी निर्मल हो पाना स्वीकार नहीं करते हैं। १०. अचल - जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ऊर्ध्वगतिस्वभावी है। आत्मा जब कर्ममलों से मुक्त हो जाता है, तो दीपक की निर्वात शिखा की तरह ऊर्ध्व गमन करता है। उसकी इस गति में धर्मद्रव्य निमित्त बनता है। यतः लोकाकाश के आगे अलोकाकाश में धर्म द्रव्य की सत्ता नहीं पाई जाती है, अतः लोकाकाश तक ही वह गमन कर पाता है। वह लोक के अग्र भाग पर अचल दशा में स्थित हो जाता है। माण्डलिक मतानयायी जीव को निरन्तर गतिशील मानते हैं। उनकी मान्यता में जीव सतत गतिशील ही बना रहता है, वह कभी भी अचल नहीं होता है। जैनदर्शन में जीव को ऊर्ध्वगमनस्वभावी मानते हुए धर्मद्रव्य के अभाव में लोकाग्र में स्थित अचल माना गया है। आत्मा के अचल विशेषण से उन माण्डलिक मतानुयायियों का खण्डन किया गया है, जो जीव को सदा गतिशील मानते हैं। ११. प्रभु - अद्वैत वेदान्ती जीव को ब्रह्म का अंश मानकर उसकी स्वतन्त्र सत्ता का निषेध करते हैं। जैन दार्शनिक अद्वैतवेदान्तियों की इस मान्यता से सहमत नहीं है। यतः सभी जीवात्माओं की प्रवृत्तियाँ समान नहीं है, आत्मा या जीव एक या एक के अंश नहीं है, अपितु अनेक हैं। श्री भावसेन का कहना है कि यदि आत्मा एक होती हो एक समय में वह तत्त्वज्ञ और मिथ्याज्ञानी, आसक्त और निरासक्त विरुद्ध व्यवहार वाला न होता। अतः आत्मा एक नही है।20
सांख्य दार्शनिकों ने बड़े ही तार्किक ढंग से एकात्मवाद का खण्डन तथा अनेकात्मवाद की स्थापना की है -
'जननमरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च। पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव॥२१