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अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य में द्रव्य लक्षण
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- डॉ. नरेन्द्रकुमार जैन (से.नि. प्राचार्य)
आचार्य विद्यानन्द द्वारा विरचित 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार” एक महत्त्वपूर्ण भाष्य ग्रन्थ है । इसको 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य' ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकव्याख्यान' और 'श्लोकवार्तिकभाष्य' नामों से भी अभिहित किया जाता है।
द्रव्य का लक्षण सत् :
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक एक भाष्य ग्रन्थ होने से विशेष रूप से द्रव्य के स्वरूप का विवेचन उसमें वहीं किया गया, जहाँ मूल ग्रंथकार को अभीष्ट रहा है, फिर भी प्रसंगतः भाष्य में अन्यत्र भी द्रव्य से संबन्धित चर्चा उपलब्ध होती है। तत्त्वार्थसूत्र के द्रव्य विवेचन के सूत्र पंचम अध्याय के सूत्र संख्या दो, बत्तीस, उन्तालीस और एकतालीस की व्याख्याओं में प्रमुख रूप से दृष्टव्य हैं। जैनदर्शन में 'सद्द्रव्यलक्षणम्' सत् को द्रव्य का लक्षण बताकर उसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक बताया है । द्रव्य गुणपर्यात्मक होता है। चेतन और अचेतन के रूप में सत् दो प्रकार का है, जिसमें अपनी जाति को छोड़े बिना अन्तरंग और बहिरंग निमित्त मिलने पर प्रतिसमय नवीन अवस्था की प्राप्ति एवं पूर्व अवस्था का त्याग होता रहता है, जिसे क्रमशः उत्पाद और व्यय के रूप में जाना जाता है। भारतीय दर्शनों में सत्ता के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विचारधारायें हैं। न्यायवैशेषिक और मीमांसा दर्शन में सत्ता का अस्तित्व मात्रा या जाति रूप माना गया है, वेदान्त दर्शन सर्वव्यापक ब्रह्म का ही अस्तित्व स्वीकार करता है। सांख्य योग दर्शन में पारिणामि नित्यवाद के रूप में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप स्वीकार किया गया है।
जो सत् है, वह द्रव्य है, द्रव्य गुणपर्याय वाला होता है। परम्परागत द्रव्य के लक्षणों के विषय में एकान्तवादियों के द्वारा उठाई गयीं आपत्तियों का निराकरण करते हुए आचार्य विद्यानंद लिखते हैं कि पूर्वपक्षी यदि यह कहते हैं कि सत् द्रव्य का लक्षण यदि विशेष सामान्य रूप से कहा गया है तो उसमें