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अनेकान्त 6714, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 अर्थात् जन्म, मरण और करण (अन्त:करण और बाह्यकरण) की प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् स्थिति दृष्टिगोचर होने से, सब जीवात्माओं की किसी क्रिया में एक साथ प्रवृत्ति न होने से तथा तीनों गुणों की भिन्न-भिन्न आत्मा में विपरीतता देखे जाने से प्रत्येक आत्मा की भिन्नता एवं उनकी अनेकता की सिद्धि हो जाती है।
सांख्य दार्शनिकों के समान नैयायिक, वैशेषिक एवं मीमांसक भी आत्मा की अनेकता स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिकों को आत्मा की अनेकता के साथ उनकी स्वयंप्रभुता भी अभीष्ट है। अतएव आत्मा को प्रभु कहा गया है। संदर्भ : 1. 'अत् धातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते। सर्वे गत्यर्थाः ज्ञानार्था इति वचनात्। तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते। अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासंभवं तीव्रमन्दादिरूपेण। आसमन्ताद् अतति वर्तते यः स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्ताद् अतति वर्तते यः स आत्मा।'
- द्रव्यसंग्रह, गाथा 57 की टीका 2. आदिपुराण, अध्याय 24 श्लोक 107-108 3. वही, अध्याय 24 श्लोक 103 4. आत्मानुशासन,
1 5. वही, 2 6. वही, 174 7. समाधिसार, श्लोक 83 8. आत्मानुशासन, श्लोक 266 9. आत्मप्रबोध, श्लोक 9 10. समयसार, गाथा 49 11. सांख्यकारिका, कारिका 62 12. 'जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि चेतनत्वामूर्तत्वमिति षट्।' - आलापपद्धति, 2 13. 'तद्यथायथं जीवस्य चारित्रं दर्शनं सुखम्।
ज्ञानं सम्यक्त्वमित्येते स्युर्विशेषगुणाः स्फुटम्।।" -पञ्चाध्यायी, श्लोक 945 14. 'उपयोगो लक्षणम्।' - तत्त्वार्थसूत्र, 2/8 15. श्रीमद्भगवद्गीता, 2/20 16. द्रष्टव्य- भारतीय दर्शन (डॉ. राधाकृष्णन्) भाग 2, पृ. 652 17. 'प्रदेशसंहार विसर्पाभ्यां प्रदीपव्।' - तत्त्वार्थसूत्र 5/16 18. 'धर्मास्तिकायाभावात्।' - वही, 10/8 19. द्रव्यसंग्रह गाथा 2 की टीका 20. विश्वतत्त्वप्रकाश, पृष्ठ 174
21. सांख्यकारिका, कारिका 18 - पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष, एस.डी. पी.जी. कालेज, मुजफ्फरनगर (उ०प्र०)