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अनेकान्त 67/4 अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
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है। बाह्य प्रत्ययों के रहने पर भी यदि द्रव्य में स्वयं उस पर्याय की योग्यता न हो तो पर्यायान्तर की प्राप्ति नहीं हो सकती। दोनों मिलने पर ही पर्याय उत्पन्न होती है। जैसे पकने योग्य उड़द यदि बोरे में पड़ा है तो पाक नहीं हो सकता । यदि घोटक (न पकने योग्य) उड़द उबलते हुए पानी में भी डाला जाये तो भी नहीं पकता।४ इस तरह कर्म और कर्तृ साधन बन जाने से स्याद्वादियों के यहाँ विरोध दोष नहीं आता। परन्तु सर्वथा एकान्तवादियों के यहाँ विरोध होने से कर्तृ, कर्म व्यवस्था नहीं बन सकती। उनके यहाँ द्रव्यों का पर्यायों में अनुगमन नहीं बन सकता, जिससे पर्यायें स्वमेव असिद्ध हैं। वस्तुतः द्रव्य के पराधीन हो रहे स्वभावों को ही पर्यायत्व सिद्ध होता है, सर्वथा भेद में नहीं । २५ तात्पर्य यह कि गुणों और पर्यायों का द्रव्य में नित्य योग बना रहता है, अविनाशी गुण तो द्रव्य में सदा विद्यमान रहते हैं। उत्पाद विनाश शील पर्यायें - विशेष रूप में कदाचित् पायी जा रहीं सदा नहीं ठहरतीं, परन्तु सामान्य की अपेक्षा कोई न कोई पर्याय द्रव्य में बनी ही रहती हैं। जैसे आत्मा में चेतन गुण नित्य विद्यमान हैं, परन्तु चेतना गुण के परिणाम घटज्ञान, पटज्ञान, श्रुतज्ञान, चक्षुदर्शन आदि कदाचित् ही होते हैं। पर्यायें सदा अवस्थित नहीं रहतीं। गुणपर्यायवान् द्रव्य के लक्षण का प्रयोजन :
द्रव्यों का समुदाय सत् महाद्रव्य है। जिसका लक्षण उत्पादव्ययधौव्यात्मक सत् है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि व्यवहार नय के अनुसार अर्पण करने पर उनमें द्रव्यत्व है । उसका असाधारण लक्षण गुणपर्यायत्व है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य का लक्षण 'क्रियागुणवत्समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्" माना गया है। अर्थात् जो क्रियावान, गुणवान् तथा समवायिकारण है, वह द्रव्य है। उनके यहाँ आकाश, काल, दिक्, आत्मा इन चार द्रव्यों को व्यापक मानकर क्रिया रहित स्वीकार किया गया है तथा पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन इन पांच द्रव्यों में ही क्रिया मानी गई है। आचार्य विद्यानंद ने लिखा है कि वैशेषिक का उक्त द्रव्य लक्षण ठीक नहीं है क्योंकि क्रिया सहित उस लक्षण में अव्याप्ति दोष आता है तथा क्रिया रहित आकाश आदि द्रव्यों में क्रिया का अभाव है। इसी तरह गुणवत्व लक्षण भी अव्याप्ति दोष से युक्त है। समवायिकारणत्व भी द्रव्य का लक्षण ठीक नहीं, क्योंकि इससे गुण और कर्म भी द्रव्यत्व को प्राप्त हो जायेंगे। इनमें समवाय सम्बन्ध से गुणत्व और कर्मत्व जाति समवेत हो रही है। यही उनकी समवायित्व से कारणता है।