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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014
७. ज्ञानी- आत्मा के चैतन्य गुण के अनुविधायी परिणाम का नाम उपयोग है और यह उपयोग जीव का लक्षण है। उपयोग दो प्रकार का होता हैज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। दर्शनोपयोग निराकार है और ज्ञानोपयोग साकार । चतुर्विध दर्शन और अष्टविध ज्ञान आत्मा का सामान्य व्यावहारिक लक्षण है। शुद्ध रूप में जीव केवल दर्शन और केवल ज्ञानमय है। सांख्य एवं नैयायिक आत्मा को ज्ञान रहित मानते हैं। नैयायिकों का कहना है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है, बाहर से आया है। सांख्य ज्ञान को प्रकृति की विकृति मानते हैं। उनके अनुसार बुद्धि ही ज्ञान है और वह प्रकृति का विकार है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जैसे अग्नि का उष्णता। जो जीव है वह ज्ञानवान् है और जो ज्ञानवान् है वह जीव (आत्मा) है। यह जीव मात्र में पाया जाता है। अतः सांख्यों एवं नैयायिकों की ज्ञानहीन आत्मास्वरूपता का खण्डन करने के लिए आत्मानुशासन आत्मा को बुध (ज्ञानी) कहा गया है।
८. देहमात्र (देहपरिमाण ) - आत्मा की आयतनिक स्थिति के विषय में विविध दार्शनिकों में पर्याप्त मतभिन्नता है। सांख्य, न्याय एवं वैशेषिक दर्शन अमूर्त होने के कारण आत्मा को आकाश की तरह सर्वव्यापक मानते हैं। श्रीमद्भगवत्गीता में भी इसी मान्यता का प्रतिपादन है।'' किन्तु माधवाचार्य आदि कतिपय वेदान्ती आत्मा को अंगुष्ठमात्र या अणु रूप में स्वीकार करते हैं।" सभी जैन दार्शनिक आत्मा को स्वदेहपरिमाण स्वीकार करते हैं। शरीर के आकार के अनुसार दीपक की तरह आत्मप्रदेशों में संकोचन या विस्तार होता रहता है।” आत्मा सर्वव्यापी नहीं है, न ही शरीर के एकदेश में रहने वाली है, अपितु शरीरव्यापी है। इस अभिप्राय को अभिव्यक्त करने तथा सांख्यादि दार्शनिकों की मान्यता से असहमति दिखाने के लिए आत्मानुशासन में आत्मा को देहमात्र कहा गया है।
९. निर्मल ( मलैमुक्तः ) आत्मा के 2 रूप हैं स्वाभाविक एवं वैभाविक । स्वाभाविक रूप स्वाधीन होता है, जबकि वैभाविक रूप परनिमित्ताधीन होता है। स्वाभाविक रूप से आत्मा निर्मल है, जबकि वैभाविक रूप में आत्मा अशुद्ध या कर्ममल से संयुक्त है। आत्मा को निर्मल कहना शुद्ध स्वाभाविक आत्मदशा का कथन है । सदाशिव मत के अनुसार जीव सदाशिव स्वरूप है। वह कभी भी संसारी नहीं होता है। कर्मो का उस
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