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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 संयोग को प्राप्त होते हैं, तो उनमें मद्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि पाँच भूतों के संयोग से जीव उत्पन्न हो जाता है। चार्वाकों की इस मान्यता का खण्डन करने के लिए आत्मा को अजात कहा गया है। आत्मा की उत्पत्ति माना जाना इसलिए भी अतार्किक है, क्योंकि आज तक ऐसा कोई फार्मला नही है कि पंचभूतों के इतने-इतने संयोजन से आत्मा की उत्पत्ति हो सके। २. अनश्वर - अनश्वर विशेषण के द्वारा भी चार्वाकों का ही खण्डन किया गया प्रतीत होता है। क्योंकि जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसी का नाश सम्भव है। अजात या अनादि पदार्थ नियम से अनश्वर या अनन्त होता है। जिस प्रकार जीवन या आत्मा का आदि नही है. जन्म-मरण होते रहने पर भी समूल नाश न होने से आत्मा का अनश्वर होना सिद्ध है। मरण वस्तुतः देहान्तरप्राप्ति की प्रक्रिया का नाम है। ३. अमूर्त - जिस प्रकार चार्वाक दार्शनिक जीव को मूर्तिक पिण्ड मानते हैं. उसी प्रकार कमारिल भटट के अनयायी मीमांसा दार्शनिक भी आत्मा को मूर्तिक स्वीकार करते हैं। जैनों की दृष्टि में भी यद्यपि कर्मबद्ध संसारी आत्मा मूर्तिक होता है तथापि आत्मा में पुद्गल के गुण रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं पाये जाते हैं, इसलिए आत्मा को अमूर्त कहा गया है। मूर्तता आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है, वह तो वैभाविक गुण है। स्वाभाविक गुण तो आत्मा का अमूर्त होना ही है। श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा
'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद। जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं॥१०
अर्थात् जीव या आत्मा को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतना गुणवान् अशब्द, किसी लिंग से अग्राह्य और किसी भी संस्थान (आकार) से रहित समझो। ४. कर्ता - सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो मूल तत्त्व स्वीकार किये गये हैं। इनमें प्रकृति जड़ किन्तु क्रियायुक्त है जबकि पुरुष चेतन किन्तु निष्क्रिय है। उनकी दृष्टि में पुरुष (जीव या आत्मा) कर्ता नहीं है। प्रकृति में क्रिया होने से वही सुख-दुःख आदि की कर्ता है। जैन दर्शन के अनुसार