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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
वाक्यात्मक पक्ष को प्राकृत के व्याकरणों में जोड़े जाने के पीछे जो भी कारण रहा हो । यहाँ इस आलेख का लक्ष्य शौरसेनी को केन्द्र में रखकर प्राकृत की भाषिक विशेषताओं की चर्चा करना भी है। चूँकि प्राकृत के कार्यो में वाक्यात्मक पक्ष पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया, इसलिए मैं यहाँ शौरसेनी की कुछ वाक्यात्मक विशेषताओं की चर्चा करूँगा। यहाँ मैं अपनी सीमा बहुत स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आज उपलब्ध किसी वाक्यात्मक प्रतिमान (मॉडल) के अनुरूप शौरसेनी के वाक्यों के विश्लेषण में प्राप्त होते हैं। ये वाक्यात्मक साँचे मैंने शौरसेनी की समग्र सामग्री के अन्वेषण के आधार पर नहीं निकाले हैं, बल्कि ये साँचे शौरसेनी पाठ के पढ़ते समय हमें कुछ विशेष लगे, इसलिए हमने उन्हें प्रमुख साँचा मान लिया है।
जब हम संस्कृत की साधारण वाक्य संरचनाओं की प्राकृत की वाक्य संरचनाओं से तुलना करते हुए आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं वाक्य-रचना की ओर देखते हैं तो यह बात बहुत साफ उजागर होती है कि प्राकृत विशेषकर शौरसेनी पाठों में सहायक क्रिया का प्रयोग नहीं होता, संस्कृत में भी सहायक क्रिया की यह बाध्यता नहीं है। जबकि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सहायक क्रिया का वाक्य रचना में होना अनिवार्य है। इसीलिए यहाँ “घर में किताब" वाक्य स्वीकार्य नहीं है। इसे या तो सहायक क्रिया " है " की या फिर सहायक क्रिया " था" की आवश्यकता है। जबकि इसके ठीक विपरीत शौरसेनी में हमें वाक्य “अरित्तओ दाव अहं" प्राप्त होता है, इसका सीधा-साधा अनुवाद यदि किया जाए तो हमें संरचना प्राप्त होगी' नहीं खाली तब तक मैं" पर यह संरचना हिन्दी समाज को स्वीकार्य नहीं है, यहीं यदि एक सहायक क्रिया" हूँ" जोड़ दी जाए तो यह "नहीं खाली हूँ तब तक मैं तब तक मैं खाली नहीं हूँ" हिन्दी का एक स्वाभाविक वाक्य हो जायेगा । प्राकृत वाक्य रचना की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि क्रिया पदबंध को संज्ञा पदबंध की विशेषता बतानी है तो आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में ऐसा क्रिया पदबंध संज्ञा पदबंध के हमेशा बाद में आता है जैसे वाक्य है "वह राम है" परन्तु प्राकृत के लिए यह अपरिहार्यता नहीं है अर्थात् ऐसी क्रिया पदबंधीय संरचना संज्ञा पदबंध के पहले भी आ सकती है, यथा