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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
अरित्तओ दाव अहं विशेषक सं०
क्रि०प० सं०प० सामान्यतः सामान्य आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की वाक्य संरचना में शब्द-क्रम सुनिश्चित सा है, पर प्राकृतों में यह शब्द-क्रम सुनिश्चित नहीं है, यही कारण है कि प्राकृत वाक्य रचना में कोई भी पद कहीं भी आ जाता है, यथा-“अण्णं अण्णं णिमत्तेदु दाव भवं।" साहित्यिक पाठों में पदों का यह मुक्त-प्रयोग अधिक देखने को मिलता है, परन्तु दर्शन और शुद्ध सिद्धान्त के ग्रन्थों में मुक्त शब्द-प्रयोग उतना सामान्य नहीं है, हम एक उदाहरण षठ् खण्डागम से लेते हैं
इदाणिं णिक्खेवत्थं भणिस्सामो। तत्थ णाम-मंगलं णाम णिमित्तंतर-णिखेक्खा मंगल-सण्णा। तत्थ णिमित्तं चउव्विहं जाइ-दव्व-गुण-किरिया चेदि। तत्थ जाई तब्भम-सारिच्छ-लक्खण-सामण्णं। दव्वं दुविहं, संजोय-दव्वं समवायदव्वं चेदि।"
अब हम वाक्य रचना में कुछ क्रिया रूपों के विकास-क्रम की ओर देखते हैं। यथा"अष्ठी ण भक्खीअदि।" गुठली नहीं खाई जाती है। "किंण भणीअदि।'क्यों नहीं कहा जाता है। "मइरा पञ्चाचगव्वं च एक्कस्सिं भण्डए करीअदि।" मदिरा तथा पञ्चाचगव्य एक ही पात्र में लिया जाता है। "कच्चं माणिक्कं च समं आहरणे पउञ्चाजीअदि।" काँच तथा माणिक्य एक ही आभूषण में प्रयुक्त किए जाते हैं।
__ यदि इन प्राकृत क्रिया रूपों की तुलना संस्कृत वाक्य रचना के क्रिया रूपों से की जाए तो यह स्पष्ट रूप से सामने आता है कि “जाता है" इस प्रकार के संरचनात्मक साँचे की पृथक् सत्ता के रूप में उपस्थिति प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में नहीं है जबकि आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में इनकी लेखीय और संरचनात्मक सत्ता एक पृथक् इकाई के रूप में है। यहीं यदि इन रूपों की परस्पर तुलना की जाए तो यह बात भी स्पष्टतः परिलक्षित होती है