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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 वस्तुकला से इनका कोई सम्बन्ध नहीं था, इस तथ्य की पुष्टि लवणशोभिका की पुत्री वसु द्वारा स्थापित एक आयागपट्ट के अभिलेख से हो जाती है जिसमें कहा गया है कि यह आयागपट्ट अर्हत् पूजा के लिए था (अर्हत् पूजाये) । २८
जैन धर्म में प्रतीक पूजा के रूप में चक्र का विशेष स्थान है। धर्म चक्र का वर्णन जैन ग्रंथ में भी मिलता है। प्रथम शती ई.पू. का एक चक्र कंकाली टीले से प्राप्त हुआ है जिनमें दायीं ओर तीन मानवाकृतियाँ अंकित हैं । ३० कंकाली टीले से सिंह स्तम्भ शीर्ष शुंगकाल का प्राप्त हुआ है, जिसमें महावीर स्वामी की प्रतीक पूजा का अंकन है।"
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जैनधर्म में त्रिरत्न का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। संपूर्ण जैन सिद्धान्त त्रिरत्न पर आधारित है । त्रिरत्न को सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के माध्यम से व्यक्त किया गया है। कुषाणकालीन एक त्रिरत्न कंकाली टीले से प्राप्त हुआ है जो लाल बलुए पत्थर पर निर्मित है। खिले हुए कमल के समान चक्र बनाया गया है। त्रिरत्न प्रतीक में धार्मिकता एवं मांगलिकता का भाव समन्वित रूप से अभिव्यक्त हुआ है। शुंगयुगीन बौद्ध शिल्प में त्रिरत्न के प्रतीक को मूर्ति के समान आसन पर प्रतिष्ठापित किया गया है। पद्मशीर्ष पर आसीन ऐसा ही एक त्रिरत्न बोधगया के एक वेदिका-स्तम्भ पर दृष्टव्य हैं । ३३
मथुरा के निकट सौख नामक टीले की पुरातात्त्विक उत्खनन से जर्मन पुरातत्वविद् हर्टेल ने प्रथम शती ई.पू. वाली २७वीं पर्त से एक पकी मिट्टी का पंचाङ्गुल की हथेली पर तीन मांगलिक चिन्ह उत्कीर्ण है- बीच में त्रिरत्न और अगल-बगल स्वास्तिक एवं इन्द्रध्वज अंकित हैं इससे यह स्पष्ट होता है कि उनके मूर्त स्वरूप का भी उपयोग किया जाता था। पंचाड. गुल स्वयंमेव एक प्रतीक माना गया है जिसकी परंपरा आज भी भारतीय लोक जनमानस में प्रचलित है । सोख से ही हर्टेल को एक घड़ा मिला है। कुषाणकालीन इस घड़े की ग्रीवा के नीचे पिटार पर दो प्रतीक स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं - दक्षिणावर्ती स्वास्तिक और अधोमुखी त्रिरत्न या नन्दिपद । ३५
आयागपट्टों तथा पद-चिह्नों पर भी त्रिरत्न भी है। कतिपय आयागपट्टों का अभ्यन्तर चार त्रिरत्नों को ऊपर-नीचे तथा दाए - बायें रखकर सजाया गया है। कुछ आयागपट्टों पर चार त्रिरत्नों के बीच में तीर्थकर की प्रतिमा उत्कीर्ण की गई है। कुछ अन्य आयागपट्टों के ऊपरी तथा निचले किनारों पर