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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
प्राकृत के कुछ भाषामूलक पक्ष (शौरसेनी सामग्री के आधार पर)
- डॉ. वृषभ प्रसाद जैन इस आलेख में शौरसेनी से सामग्री लेकर प्राकृत भाषा को केन्द्र में रखते हुए कुछ मूलभूत प्रश्नों को उठाने का यत्न किया गया है। उदाहरण के लिए प्राकृत भाषा पर हुए अब तक के कार्यों में क्या प्राकृत भाषा के सभी पक्षों
को उद्घाटित किया गया है अथवा नहीं?.....यदि किया गया है तो कहाँ तक? ....प्राकृत के अब तक लिखे गए व्याकरण क्या द्विभाषिक व्याकरण हैं या एकभाषिक वर्णनात्मक व्याकरण?... या फिर ऐतिहासिक आदि कुछ और?
आलेख की प्रमुख सीमा यह है कि इसमें यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह आलेख शौरसेनी प्राकृत के विश्लेषण के लिए किसी विशेष भाषा वैज्ञानिक प्रतिमान (मॉडल) को लाकर सामने रखेगा, बल्कि यह समझना चाहिए कि इसमें उन प्रमुख मुद्दों को लाकर सम्मुख रखने का प्रयास किया जाएगा, जो सामान्यतः प्राकृत और विशेषकर शौरसेनी के भाषामूलक अध्ययन के लिए आवश्यक है।
यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं प्राकृत का अध्यापक-अध्येता न होते हुए भी मैंने प्राकृत के कुछ मूल पाठों को, उन पर लिखी गई टीकाओं, टिप्पणियों और व्याकरणों को यहाँ-वहाँ पढ़ा है। स्पष्ट रूप से कह सकता हूँ कि जिस प्रकार की संस्कृत के शिक्षण की हमारे पास रही है और है, उस प्रकार की प्राकृत शिक्षण की परंपरा हम या तो कभी प्रारम्भ नहीं कर सके या फिर उसे जीवित नहीं रख पाए। एक अन्य तथ्य यह भी सीधे सम्मुख ला सकता हूँ कि हमने हमेशा प्राकृतों को संस्कृत की आँखों से, संस्कृत के चश्मे से देखा, हमने कभी भी प्राकृत को प्राकृत की आँख से देखने का प्रयास नहीं किया, यही कारण रहा कि हमारे प्राकृत के प्राचीन वैयाकरणों ने भी प्राकृत के व्याकरण संस्कृत के व्याकरणों के आधार पर रचे लिखे, इसीलिए विद्वज्जगत में प्राकृत भाषाओं का स्वतंत्र और वैयक्तिक स्वरूप उभर कर सामने नहीं आ