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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 भावाभावैकान्त मानने पर वस्तु में अर्थ क्रियाकारित्व नहीं होने से कार्य संभूति का अभाव मानना पड़ेगा। अतएव जो सत् है वही असत् भी है - यह अनेकान्तात्मक वस्तु में ही सप्तभंगीन्याय से सिद्ध होता है और विधिनिषेध द्वारा उसे फलित करके समझना चाहिये अन्यथा वस्तु में अर्थक्रिया नहीं होगी। यथा -
एवं विधिनिषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत।।
नेति चेन्न यथा कार्य बहिरत्नरूपाधिभिः।।४
जब हम किसी अनन्तधर्म वाले धर्मी के किसी सत्त्व-असत्त्व जैसे धर्मयुगल को मुख्य करके वस्तु का कथन करते हैं तो सप्तभंगी न्याय से किय गया कथन यथार्थ अधिगम करा देता है। धर्मो। एवं धर्मी में तादात्म्य सम्बन्ध या अभिन्नत्व होने से यह नहीं कहा जा सकता है कि एक धर्म का ज्ञान होने पर उससे ही अन्य धर्मो। का भी ज्ञान हो जायेगा। क्योंकि अनन्त धर्म वाले धर्मी में प्रत्येक धर्म के बने रहने में अपना अपना अन्य ही अर्थ या प्रयोजन है। उनमें से जब हम जिस किसी भी एक धर्म को अंगीकार करके कथन करते हैं तो अन्य धर्मो की गौणता हो जाती है। धर्म धर्मी में परस्पर अंग अंगी भाव होने से अनेकान्त के कथन में कोई विरोध नहीं रहता है। जैसा कि निम्न कारिका में परिलक्षित है -
"धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मणः।
अङ्गीत्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदङ्गता॥२५
अन्त में प्रथम परिच्छेद का समाहार इस उपदेश से किया है कि न्याय की योजना एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि सभी धर्मों में नय विशारदों द्वारा नयों के योग से करनी चाहिये -
एकानेकविकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत्।
प्रक्रियां भंङ्गिनीमेनां नयैर्नयविशारदः।।२६ द्वितीय परिच्छेद :
इस परिच्छेद में १३ कारिकाओं में स्तोत्रकार आचार्य समन्तभद्र ने अद्वैतैकान्तवाद पृथक्त्वैकान्तवाद के दूषणों का उल्लेख कर अद्वैतवेदान्त, वैशेषिक एवं बौद्धदर्शनों को समीक्षात्मक परिधि में लाकर जानने और समझने