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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 (३) आत्म से निजात्मा का ध्यान :
आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्ष पाहुड की १०६ गाथाओं में मोक्ष का उपाय दर्शाते हुये ध्यान के स्वरूप और विधि का वर्णन किया है। गाथा ७६ में यह भी घोषणा कर दी कि इस पंचमकाल में धर्म ध्यान होता है। आचार्यश्री ने निज द्रव्य के ध्यान से निर्वाा प्राप्त होना कहा - जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरित्ता। ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्वाणं ।।१९।।
अर्थ- जो मुनि पर द्रव्य से परांगमुख होकर स्वद्रव्य जो निज आत्म-द्रव्य का ध्यान करते हैं वे प्रगट निर्दोष चारित्र युक्त होते हुए जिनवर तीर्थकरों के मार्ग का अनुसरण करते हुए निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
णिच्छयणयस्स एवं अप्पा अप्पम्मि अप्पणे सुरदो।
सो होदि हु सुचरित्तो जोई सो लहइ णिव्वाणं।।मो.पा ८३।।
अर्थ-निश्चय नय का ऐसा अभिप्राय है कि-जो आत्मा, आत्मा में ही अपने ही लिये भले प्रकार रत हो जावे वह योगी, ध्यानी, मुनि सम्यक्चारित्र वान होता हुआ निर्वाण को पाता है।
श्रीमद आचार्य अकलंक देव ने स्वरूप संबोधन में आत्म-ध्यान करने का निर्देश दिया -
स्व स्वं स्वेन स्थितं स्वस्यै स्वस्मात् स्वस्याविनश्वरम्।
स्वास्मन् ध्यात्वा लभेत् स्वेत्थ मानन्दममृतं पदम्।।२५।।
अर्थ- स्वयं (आत्मा) ही अपने को अपने से स्वयं के द्वारा अपने लिये अपने में से अपने अविनाशी स्वरूप में स्थिरता पूर्वक ध्यान करके इस आनन्दमय अविनाशी पद को प्राप्त करो।
आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में ध्यान का स्वरूप दर्शाते हुए कहा - 'अथवा अग्र शब्द प्राधान्यवाची है अर्थात् प्रधान आत्मा को लक्ष्य बनाकर चिन्ता का निरोध करना। अथवा 'अङ्गतीति अग्रम आत्मा' इस व्युत्पत्ति में द्रव्य रूप से एक आत्मा को लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति प्रधान होता है, इसमें बाह्य चिंताओं से निवृत्ति होती है।
मुनिनाग से तत्त्वानुशासन श्लोक ७४ में छहकारक स्वरूप आत्मा के ध्यान को ध्यान कहा है।