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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
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उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहिं बहु एहिं । तं णाणी तिहिगुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥ ५३ ॥
अर्थ- अज्ञानी तीव्र तप के द्वारा बहुत भवों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों को ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अंतर्मुहूर्त में क्षय कर देता है । इच्छाओं के संस्कारों को ध्वस्त कर ध्यान अतिन्द्रिय आनंद प्राप्त करा देता है। ध्यान से ही आत्मा का अनुभव और कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है। दुध्यान दुर्गति को ले जाता है। ध्यान की साधना श्रुताभ्यास से होती है।
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बी-३६९, ओ. एम. कालोनी, अमलाई, जिला-शहडोल (म.प्र.) ४८४११७
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वी० के० जैन, महामंत्री वीर सेवा मंदिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली- ११०००२