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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
विसंगतियाँ:
विधि-विधान, प्रतिष्ठादि की प्राचीन परम्परा है। युग के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा अनुष्ठानों में विकास एवं परिवर्तन हुए हैं। अनुष्ठानों की मूल भावना के आधार पर जो विकास और परिवर्तन हुए उन्हें सहर्ष स्वीकार किया गया, किन्तु कुछ परिवर्तन अन्य दर्शनों के प्रभाव से हुए उनमें जैन सिद्धान्तों की भावना को गौण कर अन्य दर्शनों के सिद्धान्तों का पोषण किया गया जो जैन धर्म को अहितकारी हैं ऐसा विपरीत क्रियाएँ विसंगतियाँ कहलाती हैं। १. पंचकल्याणक जिनबिम्ब प्रतिष्ठा में व्याप्त विकृतियाँ :
पंचकल्याणक जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मूर्ति में मूर्तिमान की स्थापना कर उसे पूज्यता प्रदान करने का विज्ञान है। जिस विधि से पाषाण, धातु की प्रतिमा को संस्कारित कर भगवान का रूप प्रदान किया जाता है वह विधि पंचकल्याणक कहलाती है। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में अंगन्यास, मंत्रन्यास, गुणारोपण, एवं सर्वज्ञपने की स्थापना से जिनबिम्ब में पूज्यता आती है और उनकी स्तुति से पुण्यार्जन होता है। पंचकल्याणक जितनी शुद्धिपूर्वक संयम साधना, आराधना एवं आगमोक्त अनुशासन के साथ किया जायेगा वह उतना ही प्रभावक, ऋद्धि सिद्धिकारक एवं अतिशय प्रगट करने वाला होगा। २. पंचकल्याणक में दिशा और समय में विकृतियाँ :
पंचकल्याणक में प्रत्येक कल्याणक का समय एवं दिशा का निर्धारण, प्रतिष्ठापाठ में आचार्य जयसेन स्वामी ने श्लोक ३४२, ८३३ तक किया है। किन्तु इसके विपरीत काल और दिशा में कार्य किये जाते हैं जैसे :१. हवन कुण्ड को मूल वेदी के दक्षिण में बनाना। २. राजभवन दक्षिण की अपेक्षा उत्तर में बनाना। ३. गर्भकल्याणक की क्रिया अर्ध रात्रि की अपेक्षा दिन में मंच पर करना। ४. आहार गृह दक्षिण की अपेक्षा पूर्व में मंच पर बनाना। ५. पाण्डुक शिला पर सवस्त्र प्रतिमा ले जाना। ६. शची इन्द्राणी से अभिषेक कराना। ७. पेन्ट शर्ट, कुरता, पाजामा के ऊपर दुपट्टा डालकर अभिषेक कराना।