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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
वर्तमान में धार्मिक अनुष्ठान प्रतिष्ठा विधि-विधानों में विसंगतियाँ
• पं. सनतकुमार विनोद कुमार जैन आदिपुराण में जिनसेनाचार्य जी ने धर्मकथा के उपदेश, गर्भाधान आदि संस्कारों की विधि एवं कृषि आदि कार्य करने को अनुष्ठान कहा है। विधि, पद्धति, नियम, ढंग, तरीका भी कह सकते हैं। तीनों सन्ध्याओं में विधि-विधान पूर्वक की जाने वाली महापूजा विधान कहे जाते हैं। मंत्रों के जाप एवं उनकी दशांश आहुतियों के द्वारा जो मंत्राराधना किया जाता है वह अनुष्ठान कहलाता है। विधि-विधान जाप अनुष्ठान पूर्वक किये जाते हैं। जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, आत्माराधन, अशुभकर्म संयोगों की शान्ति, भावों की विशुद्धि, धर्मप्रभावना, सभी जीवों के सुखी होने की कामना, प्रकृति प्रकोप, उपसर्ग, दुष्काल के दुःखों, आपत्ति विपत्ति के निराकरण के लिये भी विधि विधान किये जाते हैं। इन अनुष्ठानों को दस भागों में विभाजित किया जा सकता है - १. पंचकल्याणक, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मंदिर वेदी कलशारोहण आदि। २. सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र आदि विधान। ३. व्रताराधना, उद्यापपन विधान। ४. गृहशुद्धि, गृहप्रवेश, शान्तिकर्म आदि। ५. जन्मदिन, नामकरण, विवाह, अन्तिम संस्कार। ६. रक्षाबन्धन, दीपावली, होली, हरयाली तीज, नववर्ष आदि। ७. कालसर्प, शनिग्रह निवारण, ग्रह शान्ति आदि। ८. गीतों, भजनों संगीत के माध्यम से किये जाने वाले अनुष्ठान। ९. अभिषेक पूजन में आत्माराधना, गुणानुवाद या मनोकामना पूर्ति के उपाय। १०. चौबीस समवशरण, चौबीस इन्द्रों, चक्रवर्तियों द्वारा किया गया अनुष्ठान।
इनके माध्यम से धर्म प्रभावना, कर्म निर्जरा, भाव विशुद्धि, कार्य सिद्धि के साथ सुख वैभव एवं सद्गति की प्राप्ति होती है। इनमें विसंगतियाँ, विकृतियाँ प्रदर्शन एवं प्रमाद आ जाने से ये कर्मानव, कलह, रोग, धनक्षय एवं दुःख के कारक होते हैं। अतः हमें इनकी विसंगतियों का दूर करना चाहिए।