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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 जैसे स्थाणु है या पुरूष। विपरीत एक कोटि का निश्चय कराने वाला ज्ञान विपर्यय है। जैसे सीप में रजत का ज्ञान। “विपरीतैक कोटि निश्चयात्मकं ज्ञानं विपर्ययः। यथा शुक्तिकायां रजतमितिज्ञानम्"।किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः। यथा गच्छन् तृणस्पर्शमिति ज्ञानम्। यह क्या है, इस प्रकार विचार करने वाला ज्ञान अनध्यवसाय है। जैसे जाता हुआ व्यक्ति तृणस्पर्श होने पर आगे यह विचार करता है कि यह क्या है? सम्यग्ज्ञान उपर्युक्त तीनों प्रकार के मिथ्या ज्ञानों से रहित होता है। सम्यग्ज्ञान के आठ अंग :
अध्ययन काल में विनयपूर्वक अतिशय सम्मान के साथ अर्थात् आदर, भक्ति एवं नमस्कार क्रिया के साथ ग्रन्थ-शब्द से पूर्ण, अर्थ से पूर्ण और शब्द तथा अर्थ दोनों से पूर्ण धारक सहित अर्थात् शुद्धि पाठ सहित बिना किसी बात को छिपाए सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यहाँ पर सम्यग्ज्ञान के आठ अंगों पर प्रकाश डाला गया है। ये आठ अंग इस प्रकार हैं१- ग्रन्थाचार २- अर्थाचार ३- उभयाचार ४- कालाचार ५- विनयाचार ६- उपधनाचार ७- बहुमानाचार ८-अनिन्हवाचार ।
१- ग्रन्थाचार- व्याकरण के अनुसार अक्षर, पद, मात्रादि का (तापूर्वक पठन-पाठन करने को शब्दाचार या ग्रन्थाचार कहते हैं।
२- अर्थाचार-निश्चय करने को अर्थाचार कहते हैं।
३- उभयाचार- शब्द और दोनों के शुद्ध पठन-पाठन और धारण करने को उभयाचार कहते हैं।
४-कालाचार- उत्तम (योग्य) काल में पठन-पाठन कर ज्ञान के विचार करने को कालाचार कहते हैं। गोसर्गकाल (मध्यान्ह से दो घड़ी पहिले और सूर्योदय से दो घड़ी पीछे का काल), प्रदोष काल (मध्यान्ह के दो घड़ी पश्चात्
और रात्रि से दो घड़ी पहले का काल), रात्रि के दो घड़ी उपरान्त और मध्य रात्रि से दो घड़ी पहले का काल और विरात्रिकाल (मध्यरात्रि से दो घड़ी पश्चात् और सूर्योदय से दो घड़ी पहले का काल) इन चार उत्तम काल में पठन-पाठनादि स्वाध्याय करने को कालाचार कहते हैं। चारों सन्ध्याओं की अन्तिम दो-दो घड़ियों में, दिग्दाह, उल्कापात, वज्रपात, इन्द्रधनुष, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, तूफान,