________________
अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती
पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवंगते। इसी श्लोक की झलक लेकर वादीभसिंह ने गद्यचिन्तामणि काष्ठांगार द्वारा हस्तिताडन (हाथी को सताने) के अपराध में जीवन्धर स्वामी को प्राणदण्ड घोषित किये जाने पर और श्मशान से सुदर्शन यक्ष द्वारा उनके गुप्त रूप से स्थानांतरित किये जाने पर पुरवासियों की चर्चा रूप में इस श्लोक को गद्य रूप में लिखा
अद्य निराश्रयाः श्री निराधरा धरा निरालम्बा सरस्वती निठ्ठफलं लोकलोचन विधानम निःसंसार संसारः नीरसारसिकता निरास्पदा वीरता इति मिथः प्रवर्तयति प्रणयोदगारिणीम वाणिम -
___इससे सिद्ध होता है कि वादीभसिंह भोज के परवर्ती है और धारानरेश भोज का समय १०१०से १०५० ई. निश्चित है। ३. सोमदेवसूरी ने सोमदेव कृत यशस्तिलकचम्पू (अश्वास-२ श्लोक १२६) की अपनी टीका में वादीराज कवि का एक श्लोक उद्धत किया है तो वादीभसिंह और वादिराज को गुरूभाई तथा सोमदेव का शिष्य बतलाया गया
कर्मणा कवलितोऽजनि सोऽजा तत्पुरान्तरजनड.गमवारेकर्मकोद्रवरसेन हि मत्तः किं किमेत्यशुभधाम न जीवः स्वागतेतिसभादगुरूयुग्मम इति वचनात् स्वागता छन्द इदं सः वादिराजोऽजोपि श्रीसोमदेवचार्यस्य शिष्यः वादीभसिंहोऽपिमदीय शिष्यः इत्युक्त्वात्
इससे सिद्ध होता है कि वादीभसिंह सोमदेव से परवर्ती हैं सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू की रचना शताब्दी ८८१ (ई.९५९) में की है और वादिराज ने अपना पार्श्वचरित शक्राब्द ९४७ (ई.१०२५) में समाप्त किया।
इनके अतिरिक्त पं. के. भुजबल शास्त्री ने जैन सिद्धांत भास्कर भाग-६ किरण २ में प्रकाशित 'क्या वादीभसिंह अकलंक देव के समकालीन हैं। शीर्षक लेख में उद्धृतकर उनमें उल्लिखित अजितसेन पण्डितदेव वादिधरट्ट अजितमुनिपति अजितसेन भट्टारक और मुनि अजितसेन देव को गद्यचिंतामणिकार वादीभसिंह सूरी स्वीकृतकर उन्हें ग्यारहवीं शताब्दी का विद्वान प्रकट किया है।