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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 के कारण धर्म के संरक्षण को कुछ परिवर्तन, कुछ ग्रहण, कुछ त्याग भी करने पड़े। जिन्हें अनुकूलता आने पर छोड़ नहीं पाये। जिनका स्वाध्याय कम था जो जैन धर्म के सिद्धान्तों से अपरिचित थे उन्होंने श्रमण संस्कृति के साथ अन्य संस्कृति को भी ग्रहण कर लिया जिसके दुष्परिणाम पीढ़ियों से चलते आ रहे
भौतिकता की चकाचौंध में आगे निकल जाने की चाह, वैभव आदि की प्राप्ति, धन संचय और सांसारिक सुख इच्छा पूर्ति को दर-दर की ठोकरे खाते हुए अनेक कुदेवों की चौखट पर शिर टेक रहे हैं। इसमें अध्यात्म, वीतरागता, मोक्षमार्ग आदि गौण हो गये हैं। मात्र सांसारिक सुखों की चाह में हम सरागी देवों की आराधना करने लगे हैं। जिससे जैनधर्म के क्रिया कलापों, अनुष्ठानों में विसंगतियों ने सरलता से प्रवेश कर लिया है। १- जगह जगह धार्मिक शिक्षण शिविर लगाकर स्वाध्याय परम्परा को प्रोत्साहित करना। २- पत्र पत्रिकाओं में शोध लेख प्रकाशित करना। ३- दूरदर्शन पर धार्मिक धारावाहिक, एवं प्रवचन, परिचर्चाएँ प्रचारित करना। ४- जैन धर्म के सिद्धान्तों को वैज्ञानिक तरीके से विवेचन करना। ५- लौकिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा के प्रति जागरूक करना। ६-विश्वविद्यालयों में जैनधर्म शिक्षा के संकाय स्थापित करवाना।
वर्तमान में जैनधर्म की क्रियात्मक कार्यशैली में जहाँ अन्य संस्कृतियों का प्रभाव है वहीं सांसारिक समृद्धि की भावना, जैनागम का ज्ञान न होना, प्रदर्शन और श्रेष्ठता प्राप्त करने की भावना बलवती हो गयी है। हर कोई अपने कार्यक्रम अनुष्ठान को प्रभावक बनाने के लिये नये नये तरीके अपनाने लगे हैं। कुछ नया करने की चाह में सिद्धान्तों की बलि चढ़ा दी जाती है।
बाह्य प्रदर्शन से प्रभावित, सिद्धान्तों से अनभिज्ञ, अपरिपक्व व्यक्ति ऐसी थोथी प्रभावना से प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने लगता है, जो आगे चलकर परम्परा बन जाती है। हमें जैनधर्म सिद्धान्त दर्शन के मूल स्वरूप को प्रकट कर सम्पूर्ण विश्व में प्रचार करना होगा।
- रजवाँस, सागर (मध्यप्रदेश)