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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप
- डॉ. रमेशचन्द्र जैन
आत्महित चाहने वालों द्वारा सम्यज्ञान की उपासना :
सम्यग्दर्शन के धरण करने वाले पुरुषों को जो नित्य आत्मा का हित चाहते हैं, जिनधर्म की पद्धति और युक्तियों के द्वारा भले प्रकार के विचार करके सम्यग्ज्ञान आदर के साथ प्राप्त करना चाहिए। सम्यग्ज्ञान की वृद्धि के लिए उपाय यह है कि पदार्थों को प्रमाण और नयों के द्वारा निर्मित करना चाहिए। प्रमाण से अनंत धर्मात्मक वस्तु का एकसाथ बोध होता है। यह वस्तु के सर्वाश को ग्रहण करता है। आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में कहा हैतत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासनम् ।
क्रममावीच यज्ज्ञानं स्याद्वादनय संस्कृतम् ॥
अर्थात् आपका (जिनेन्द्रदेव का) तत्त्वज्ञान प्रमाण है क्योंकि उसमें एकसाथ सकल पदार्थों का अवभासन होता है जो क्रमभावी ज्ञान होता है, उसे स्याद्वाद नय से संस्कृत होना चाहिए। इस प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने प्रमाण के अक्रमभावी और क्रमभावी दो भेद किए हैं। आचार्य विद्यानन्द ने सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण बतलाया है। उन्होंने कहा है कि ज्ञान चाहे गृहीत अर्थ को जाने अथवा अगृहीत को जाने, वह स्वार्थ व्यवसायात्मक होने से प्रमाण है। आचार्य मणिक्यनन्दि ने अपूर्व विशेषण का समावेश कर स्व और अपूर्व अर्थ के व्यवसायात्मक ( निश्चयात्मक) ज्ञान को प्रमाण कहा है। प्रमाण के पाँच भेद होते हैं: - १ - मतिज्ञान २- श्रुतज्ञान ३- अवधिज्ञान ४- मन:पर्ययज्ञान ५- केवलज्ञान ।
नय प्रमाण के एकदेश को ग्रहण करता है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार श्रुतप्रमाण के द्वारा गृहीत अर्थ के विशेषों अर्थात् धर्मों का जो अलग-अलग लक्षण है, उसे नय कहते हैं। " वस्तु का एक धर्म, उस धर्म का वाचक शब्द और उस धर्म को जानने वाला ज्ञान, ये तीनों ही नय के भेद हैं।"