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________________ अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 29 उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहिं बहु एहिं । तं णाणी तिहिगुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण ॥ ५३ ॥ अर्थ- अज्ञानी तीव्र तप के द्वारा बहुत भवों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों को ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अंतर्मुहूर्त में क्षय कर देता है । इच्छाओं के संस्कारों को ध्वस्त कर ध्यान अतिन्द्रिय आनंद प्राप्त करा देता है। ध्यान से ही आत्मा का अनुभव और कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष होता है। दुध्यान दुर्गति को ले जाता है। ध्यान की साधना श्रुताभ्यास से होती है। ****** बी-३६९, ओ. एम. कालोनी, अमलाई, जिला-शहडोल (म.प्र.) ४८४११७ पुस्तक विज्ञापन पं. जुगलकिशोर 'मुख्तार' जी ने आचार्य समंतभद्र पर बहुत खोजपूर्ण कार्य किया और स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ रत्नकरण्ड श्रावकाचार की विशिष्ट व्याख्या करते हुए १६८ पृष्ठ के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और १२४ पृष्ठ की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से मंडित आपने “समीचीन धर्म शास्त्र" की रचना की थी। वीर सेवा मंदिर ने विगत वर्ष (२०१२ में) इसका नया संशोधित संस्करण निकाला है जो जैनसमाज के सभी धर्म जिज्ञासुओं के लिए अत्यंत उपयोगी है। इसका मूल्य १५०रु है जिसपर ४० प्रतिशत कमीशन देय है। आशा है “समीचीन धर्म शास्त्र" का यह नया संस्करण अत्यंत रोचक एवं ज्ञानवर्धक सिद्ध होगा । इच्छुक धर्मप्रेमी, वीरसेवामंदिर से उक्त ग्रंथ सशुल्क डाक व्यय सहित प्राप्त कर सकते हैं। वी० के० जैन, महामंत्री वीर सेवा मंदिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली- ११०००२
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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