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________________ 28 अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 है। काया-वचन और मन से कुछ भी नहीं करना और जागरूक रहना ही ध यान है। इसे हम निर्विकल्प-निर्विचार जागरुकता कह सकते हैं। तत्त्व-अभ्यास से मन की विश्रति सहज होती है किन्तु इस सहजता के लिये भी बुद्धिपूर्वक पृष्टभूमि-आधार तैयार करते हैं। चिंतन, अनुप्रेक्षा, भावना और ध्यान : ध्यान की चर्चा करते समय चिंतन, अनुप्रेक्षा और भावना शब्दों का प्रयोग प्रायः होता है। अध्यात्म के क्षेत्र में इन शब्दों का अर्थ विशिष्ट होता है। प्रेक्षाध्यान के प्रणेता महाप्रज्ञ श्री ने जैनागम के आलोक में ध्यान पर गहन अध्ययन और प्रयोग किये। उनकी कृति जैन योग के अनुसार उक्त शब्दों का भाव इस प्रकार है - १) चिंतन अनेक विषयों पर अनेक विकल्पों से विचार करना २) अनुप्रेक्षा = एक विषय पर अनेक विकल्पों से विचार करना ३) भावना = एक विषय पर एक विकल्प की बारम्बार पुनरावृत्ति ४) ध्यान = एक विषय पर एक विकल्प की अपुनरावृत्ति या निर्विकल्पता सामान्य रूप से भाव या अभिप्राय को हम भावना मानकर अध्यात्म जगत में प्रयुक्त शब्द 'भावना' की साधना से वंचित रह जाते हैं। एक विषय पर एक विकल्प या आयाम की बारम्बार पुनरावृत्ति नहीं होती किन्तु उस पर परिणाम स्थिर हो जाता है। एक विषय पर एक विकल्प की पुनरावृत्ति भावना और स्थिरता ध्यान है। इस प्रकार ध्यान निर्विकल्प होता है। निर्विकल्प होने का आशय यह नहीं कि साधक निर्विचार हो जाता है। निर्विचार होने पर जड़पना आ जायेगा। पं. टोडरमल जी ने निर्विकल्पदशा मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार में की है। उनके अनुसार पर द्रव्य तथा स्वद्रव्य का सामान्य रूप और विशेष रूप जानना होता है, परन्तु वीतरागता सहित होता है, उसी का नाम निर्विकल्पदशा है। जितने काल एक जानने रूप रहे तब तक निर्विकल्प नाम पाता है। ध्यान का महत्व : ध्यान की महिमा अदभुत है। आचार्य कुन्दकुन्द की मोक्षपाहुड की निम्न गाथा ध्यान के फल को दर्शाती है
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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