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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 और ध्यानान्वयसूचन का विवेचन कर ध्याता, ध्यान, ध्यानफल और ध्येय तथा आर्त्त, रौद्र धर्म और शुक्ल ध्यान का उल्लेख किया।
ध्यान पर्याय विनाशक्ति होने के कारण शुद्ध पारिणामिक भाव ध्येयरूप है तथा 'सर्व आवरणों से रहित अखंड-एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय तथा नाश रहित और शुद्ध पारिभामिक लक्षण वाले निजपरमात्मद्रव्य है वही मैं हूँ, अपितु खंडज्ञान रूप नहीं है - ऐसी भावना ध्याता करता है। इसका विवेचन जयसेनाचार्य ने समयसार की गाथा ३२० (३४३) की तात्पर्यवृत्ति टीका में किया है जो मननीय है। आचार्य श्री ने स्पष्ट किया कि औपशमादिक पांच भावों में औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक ऐसे चार भाव पर्याय रूप हैं। और पंचम शुद्ध पारिणामिक भाव द्रव्य रूप है। (४) सहजमूल स्वरूप में होना- ध्यान :
___ 'वत्थु सहावो धम्मो' -वस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। स्वभाव अर्थात् जो सदैव साथ है और जिसे लाने हेतु कोई प्रयास नहीं करना पड़े। जीव का स्वभाव है जानना-देखना, क्षमा-मार्दव-आर्जव-शुचिता (संतोष),शांति-आनंद और जागरुकता आदि। जब जीव अपने मूल स्वभाव में लौटकर आ जाये, यही उसका ध्यान है। कर्ता-भोक्ता और एकत्व-ममत्व के परिणामों से निवृत्ति का सूत्र श्रीमद नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव ने बृहद्-द्रव्य संग्रह में निम्न रूप से दिया
मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं।।१६।।
अर्थ- हे भव्यो! कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी चितवन मत करो, जिससे आत्मा निजात्मा में तल्लीनता रूप से स्थिर हो जाय। यही आत्मलीनता ही परम ध्यान है।
इसका निहितार्थ यह है कि मन-वचन-काय के शुभाशुभ व्यापार का निरोध होने से आत्मा सहज अपने मूल ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव की ओर लौटकर स्थित हो जाता है, यही ध्यान है। वैराग्य, तत्त्वज्ञान, परिग्रह, त्याग, समत्वभाव एवं कषायों के निग्रह सहित मूल अकर्ता-अयोक्ता स्वभाव के सन्मुख सहज वापिस होना होता है। अकर्त्तारूप कुछ नहीं करने का अभ्यास कठिन है। योग-निवृत्ति हेतु ज्ञानाभ्यास सहित निरंतर जागरूक और सजग रहना होता