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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतो यतः ।
षटकारक मयस्तस्माद्वयानमात्मैव निश्चयात् ॥ ७४ ॥
अर्थ- चूंकि आत्मा अपने आत्मा को, अपने आत्मा में, अपने आत्मा के द्वारा, अपने आत्मा के लिये, अपने-अपने आत्म हेतु ध्याता है, इसलिये षटकारक रूप परिणत आत्मा ही निश्चयनय की दृष्टि से ध्यानरूप है। आचार्य योगीन्दु देव ने योगसार में आत्म-ध्यान का स्वरूप : एक्क लउ जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि ।
अप्पा झायहि णाणमउ लहु सिव- सुक्ख लहेहि ॥ ७० ॥
अर्थ- यदि तू अकेला ही जायेगा तो राग, द्वेष, मोहदि पर भावों को त्याग दे । ज्ञानमय आत्मा का ध्यान कर तो शीघ्र ही मोक्ष का सुख पायेगा । पं. आशाधर जी ने अनगार धर्मामृत प्रथम अध्याय के श्लोक ११३ में बताया है कि जब छहों कारक आत्मस्वरूप होते हैं तभी रत्नत्रय की एकता होती है और तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इष्टनिष्टार्था मोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः।
ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात्तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥ ११४ ॥
अर्थ- इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह-राग-द्वेष नष्ट करने से चित्त स्थिर होता है, चित्त स्थिर होने से ध्यान होता है। ध्यान से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है उससे मोक्षसुख मिलता है।
आत्म-ध्यान का ध्येय- शुद्ध पारिणामिक भाव :
आचार्य कुंदकुंद ने प्रवचनसार की गाथा १९४ में कहा कि जो उपयोगात्मक ध्रुव आत्मा को अपना मानता है वह विशुद्धात्मा होता हुआ परम आत्मा का ध्यान करता है, वह साकार हो या निराकार मोहदुर्ग्रथि का क्षय करता है। गाथा १९५ में कहा है कि मोह ग्रंथि को नष्ट कर, राग-द्वेष का क्षय एवं समत्व भाव वाला श्रमण अक्षय सौख्य को प्राप्त करता है। आगे गाथा १९६ में कहा है कि जो मोहमल का क्षय करके, विषयों से विरक्त होकर, और मन का निरोध करके स्वभाव में समवास्थित है, वह आत्मा का ध्यान करने वाला है। जयसेनाचार्य ने तात्पर्यवत्ति की गाथा १९६ की टीका में शुद्धात्म ध्यान से जीव विशुद्ध होता है ऐसा कहकर ध्यान, ध्यान-सन्तान, ध्यानचिंता