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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 को कहते हैं। साध्य के साथ हेतु का अन्वय व्यतिरेकपने से अविनाभाव होता ही है। वही हेतु समीचीन है जिसमें अन्वय व्यतिरेक अर्थात् साधर्म्य और वैधर्म्य दोनों घटते हों। “पर्वत पर अग्नि है, धूम होने से'। यहाँ पर्वत पर अग्नि साध्य है और धूम का होना हेतु है। अग्नि के होने पर ही धूम होता है, यह अन्वय धर्म है तथा अग्नि के नहीं होने पर धूम नहीं होता है यह व्यतिरेकधर्म है। इस प्रकार धूमहेतु में साधर्म्य वैधर्म्य घटित हो जाते हैं जिससे दोनों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध भी अभिव्यक्त हो जाता है।
इसी प्रकार नास्तित्व भी अपने प्रतिषेध्य अस्तित्व के साथ प्रत्येकधर्मी में अविनाभावी है। क्योंकि नास्तित्व भी एक धर्मी का विशेषण है। यह घट है, पट नहीं है क्योंकि घटपने है पटपने नहीं। यहाँ घट का अस्तित्व रूप विशेषण 'घटपने है' इससे ज्ञात हो जाता है। तथा ‘पट' नहीं है' - से नास्तित्व विशेषण ज्ञात होता है। नास्तित्व विशेषण होने से अपने प्रतिषेध्य के साथ अविनाभवी होता है। वैसे ही जैसे हेतु में अभेद विवक्षा से वैधर्म्य साधर्म्य का अविनाभावी
यहाँ यदि यह कहा जाये कि एक धर्मी में अस्तित्व नास्तित्व विशेषण भले हों पर वे विशेष्य नहीं माने जा सकते हैं और वे अभिलाप्य भी नहीं है तो समन्तभद्र कहते हैं कि -
'विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः।
साध्यधर्मों यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्ष्या।।२२ अर्थात् अस्तित्व नास्तित्व विशेषणों से ही धर्मी विशेष्य कहलाता है तथा शब्दगोचर भी है। जैसे साध्य का धर्म अपेक्ष के भेद से हेतु भी होता है और अहेतु भी होता है।
प्रत्येक वस्तु अस्तित्व (विधेय) और नास्तित्व (प्रतिषेष्य) स्वरूप वाली है। यहाँ वस्तु विशेष्य है। शब्द का विषय बनने वाली विशेष्य रूप वस्तु विधि प्रतिषेध ही होती है। अपने स्वरूप से कही जाने की विवक्षा में विधिरूप तथा पर रूप से कही जाने की विवक्षा में निषेधरूप होती है वैसे ही जैसे साध य का धर्म सिद्ध करने में हेतु का विधि निषेध रूप होता है। “शब्दाः अनित्याः कृतकत्वात्” यहाँ ‘कृतकत्व' शब्द की अनित्यता को सिद्ध करने में हेतु है किन्तु शब्द की नित्यता को सिद्ध करना हो तो अहेतु है। इस प्रकार अपेक्षा