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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलंतयं चित्तं।
तं होइ भावणा वा अणुपेहा व अहव चिंता।।१२।। जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना वह या तो भावना है या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है।
आचार्य उमा स्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा है कि - 'उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है जो अंतर्मुहूर्त काल तक होता है।' यथा - उत्तम संहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात (९)
आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में उक्त की टीका में निम्न रहस्य उदघाटित किये। मुहूर्त ४८ मिनट का होता है।
१) आदि के वजवृषभनाराच संहनन, वज्रनाराचसंहनन और नाराथ संहनन ये तीन संहनन उत्तम है। मोक्ष का साधन प्रथम संहनन है।
२) अग्र पद का अर्थ मुख है जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है। यहाँ अग्र विषय का सूचक है।
३) नाना अवलम्बन लेने से चिन्ता परिस्पंदवती होती है। उसे अन्य अग्र (मुखों) से लौटा कर एक अग्र या विषय में नियमित करना एकाग्रचिंता निरोध कहलाता है।
४) चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है जो निरोधनं निरोधः रूप भाव साधन नहीं है किन्तु निरुध्यत इति निरोधः - जो रोका जाता है। इस प्रकार कर्म साधन है। (चिंता से तात्पर्य चिंतवन-स्मृति से है)
५) निष्पत्ति - निश्चल अग्निशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है।
६) आचार्य पूज्यपाद ने चित्त के विक्षेप का त्याग करना ध्यान कहा
आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में ध्यान के स्वरूप और उसकी प्रक्रिया का विषद वर्णन निम्नरूप से किया है -
तन्मय होकर किसी एक ही वस्तु में जो चित्त का निरोध कर लिया जाता है उसे ध्यान कहते हैं (२१/८)। जो चित्त का परिणाम स्थिर होता है, उसे