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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 करते हुय समन्तभद्र का मन्तव्य है कि क्षणिकैकान्त पक्ष में प्रेत्यभाव, बन्ध, मोक्ष आदि को मानना असंभव है क्योंकि नित्य आत्मा के अभाव में प्राणियों में प्रत्यभिज्ञान आदि का होना सम्भव नहीं है। जिसके अभाव में पुण्य पाप आदि कार्यों का आरम्भ करना नहीं होता और पुण्य पाप आदि के अभाव में प्रेत्यभाव आदि फल कैसे होंगे? सर्वथा क्षणिकैकान्त में उनका होना सम्भव ही नहीं है।३९
वस्तु को सर्वथा क्षणिक मानने पर उसमें सत् रूप कार्य की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती है। वह तो असत् रहकर ही उत्पन्न होता रहता है, यह मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि सर्वथा असत् कार्य आकाश कुसुम की तरह उत्पन्न नहीं हो सकता है। ऐसा न मानने पर उपादान कारण के होने पर कार्य की उत्पत्ति होती है, यह नियम भी क्षणिकवाद में नहीं रहेगा फिर कैसे कार्यों के होने का विश्वास किया जाये।
क्षणिकवाद में अन्वय का सर्वथा अभाव होने से हेतुफलभाव, वास्यवासकभाव, कर्मफलभाव, प्रवृत्ति निवृत्ति आदि के भाव नहीं बनेंगे। प्रत्येक क्षणवर्ती कार्य का परस्पर में अन्वय न होने कार्यकारणपना भी नहीं माना जा सकता है। प्रत्येक कार्य सन्तति भिन्न भिन्न ही है। इसलिये सन्तानान्तरों के समान वर्तमान क्षणवर्ति एक सन्तान सन्तानवान् के साथ अन्वय न होने से सन्तान सत्यार्थ नहीं कही जा सकती है। सत्यार्थ सन्तान के होने पर ही हेतु फल आदि का व्यवहार संभव है जो क्षणिकवाद में असंभव है। भिन्न भिन्न क्षणों में अनन्य शब्द का व्यवहार सन्तान है या पृथक्-पृथक् क्षणों को एक मानना सन्तान है तो यह सन्तान कल्पना तो संवृति मात्र है, उपचार कथन है, वास्तविक नहीं होने से उसे मुख्य नहीं कर सकते हैं। मुख्यार्थ के अभाव में सञ्जात संवृति मिथ्या क्यों न कही जाये।
सन्तान और सन्तानवान् में एकत्व या अन्यत्व अवाच्य है क्योंकि उनके (१) सत् रूप है (२) असत् रूप है, (३) सदसत् उभय रूप है और (४) सत् असत् दोनों रूप नहीं है, इन चार विकल्पों का अयोग है। इसका उत्तर देते हुये आचार्य ने कहा कि यदि सन्तान सन्तानवान् चार कोटियों से अवक्तव्य हैं तो यह विकल्प भी उनके नहीं मानना चाहिये। जिससे सर्वविकल्पों से रहित सन्तान या सन्तानवान् अवस्तु ही ठहरेंगे, क्योंकि सभी धर्मों से रहित