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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 नहीं है क्योंकि इच्छा तो असत् हो सकता है। इसका उत्तर समन्तभद्र इस प्रकार देते हैं -
'विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणि।
सतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तर्थिभिः॥३५
अर्थात् अनन्तधर्म विशिष्ट विशेष्य धर्मों में जो विवक्षा अविवक्षा होती है वह विद्यमान (सत्) विशेषण की होती है। अविद्यमान (असत्) की नहीं। वस्तु में अद्वैतत्व (एकत्व) या पृथक्त्व को जानकर कहने की इच्छा करने वाले लोग अद्वैतत्व है या नहीं, पृथकत्व है या नहीं ऐसी विवक्षा करते हैं अथवा वस्तु के होने पर उसे जानकर भी उसे कहने की इच्छा नहीं करते, यह अविवक्षा है।
अन्त में आचार्य स्पष्ट कर देते हैं कि प्रत्येक वस्तु अद्वैत (अभेद-एकत्व) तथा पृथक्त्व (भेद-अनेकत्व) प्रमाणभूत-वास्तविक प्रमेय हैं काल्पनिक-औपचारिक (अपरमार्थभूत) नहीं है। गौण और मुख्य की विवक्षा में वे दोनों एक वस्तु में सिद्ध हैं, यह प्रतीति करा देते हैं। कारिका इस प्रकार
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'प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती।
तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया।।३६ तृतीय परिच्छेद :
यहाँ नित्यत्वैकान्त, क्षणिकत्वैकान्त, निरपेक्ष तदुभयैकान्त और अवाच्यतैकान्त की समीक्षा प्रस्तुत हुई है। नित्यत्वैकान्तवाद का प्रस्थापक सांख्य प्रस्थान को माना जा सकता है क्योंकि सांख्य सिद्धान्त में सभी पदार्थ कूटस्थ नित्य मान लिये गये हैं। जो सदा एकरूप ही रहे वह कूटस्थ नित्य कहलाता है। सांख्य मत में प्रकृति और पुरुष ये दो मूल तत्त्व हैं जो परिणाम को प्राप्त होते हैं। किन्तु पर्याय की अपेक्षा भी वहाँ किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति
और विनाश नहीं होता है केवल परिणामों का आविर्भाव (प्रकटन) और तिरोभाव होता है। सांख्य के अनुसार सभी कार्य अपने कारणों में छिपे रहते हैं यह तिरोभाव है तथा उचित कारण सामाग्री के मिलने पर प्रकट हो जाते हैं यह आविर्भाव है। आविर्भाव तिरोभाव में मूल तत्त्व प्रकृति या पुरुष सदा ही ज्यों के त्यों बने रहते हैं। यही नित्यत्वैकान्त है। आचार्य समन्तभद्र ने इसकी