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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014
अर्थात् द्रव्य और पर्यायों में परस्पर एकपना है क्योंकि दोनों कभी भी एक दूसरे के बिना उपलब्ध नहीं होते हैं। द्रव्य और पर्यायों का नानात्व भी सम्भव है क्योंकि उनमें परिणामों का भेद है, शक्ति और शक्तिमत् का अपना भाव होता है, संज्ञा का भेद है, संख्या का भेद है, गुण पर्यायों के अपने अपने लक्षणों का भेद है तथा प्रयोजन का भेद भी है। यह सब कथञ्चित् समझना चाहिये, सर्वथा नहीं। पंचमपरिच्छेद:
इस परिच्छेद में केवल ३ कारिकायें मौजूद हैं जिनके माध्यम से वस्तु के संदर्भ में सर्वथा अपेक्षावाद या सर्वथा अनपेक्षावाद से धर्मधर्मी आदि की सिद्धि पर विचार किया गया है तथा कथंचित् अपेक्षा और कथंचित् अनपेक्षा से ही वस्तु को धर्म धर्मी कहा गया है। इस प्रसंग में आचार्य समन्तभद्र निम्न कारिका लिखते हैं
'यद्यापेक्षिकसिद्धिःस्यान्न द्वयं व्यवतिष्ठते।
अनापेक्षिकसिद्धौ च न सामान्यविशेषता।।५७ यहाँ बौद्धों की अवधारणा को मुख्य करके कहा गया है कि धर्म धर्मी का व्यवहार सर्वथा आपेक्षिक है इसलिये वह काल्पनिक है वास्तविक नहीं। यदि वह वास्तविक होता तो धर्म सदा धर्म ही रहता और धर्मी सदा धर्मी। किन्तु अपेक्षा बदलने पर जो धर्म है वह धर्मी बन जाता है तथा जो धर्मी है वह धर्म हो जाता है। जैसे “शब्दः अनित्यः सत्त्वात्” यहाँ शब्द धर्मी है और सत्त्व धर्म। विवक्षा बदलने पर “सत्त्वं ज्ञेयम्" यहाँ सत्त्व धर्मी हो गया। यदि सर्वथा अपेक्षा से ही धर्म-धर्मी को मानेंगे तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दोनें की सत्ता तो निरपेक्ष होती है धर्म के होने में धर्मी के साथ उसका अविनाभाव सम्बन्ध तो है पर धर्म और धर्मी अपने स्वलक्षण से ही हैं न कि धर्म के कारण धर्मी का अस्तित्व है अथवा धर्मी के कारण धर्म का अस्तित्व है। यदि एक दूसरे की सिद्धि करेंगे तथा दूसरे से पहले की सिद्धि करेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष आ जायेगा जिससे न धर्मसिद्ध होगा न धर्मी। इसलिये इनकी सिद्धि हमें इनके पअने स्वरूप से करनी चाहिये न कि एक दूसरे की अपेक्षा मात्र से। दोनों के अस्तित्व को स्वतंत्र मानकर और जानने के लिये अपेक्षा लगाकर धर्म