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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 है। यह मत समीचीन नहीं माना जा सकता है क्योंकि इसके अनुसार तो 'तृणाग्र पर सौ हस्तियूथ रहते हैं' इत्यादि मिथ्यावाक्य भी प्रमाण माने जायेंगे। अथवा स्वप्रज्ञान या मरीचिका में जलज्ञान रूप भ्रमज्ञान को भी प्रमाण मानना पड़ेगा।ये सब मिथ्याज्ञान बहिरंङ्गार्थ के बिना नहीं हो सकते हैं और बहिरंङ्गार्थ ही सत्य है। अतः ये भी प्रमाण या सत्य हो जायेंगे। इसके अतिरिक्त बहिरंङ्गार्थतैकान्त में अर्थ सर्वथा क्षणिक है या अर्थ सर्वथा नित्य (अक्षणिक) है; इन विरुद्धाभिधानमूलक दोनों ज्ञानों को प्रमाण मानना पड़ेगा। क्योंकि उक्त दोनों वचनों तथा ज्ञानों का सम्बन्ध अर्थ से ही तो है। बहिरङ्गार्थतैकान्त में कोई भी मिथ्या नहीं होगा और विरुद्ध कथन करने वाले सभी लोगों की कार्यसिद्धि माननी पड़ेगी। अतः प्रमाणाभास का निह्नव यहाँ अपरिहार्य है फिर कैसे इसे प्रमाण माना जाये। समन्तभद्र के इस मन्तव्य को निम्न कारिका में देखा जा सकता है
'बहिरङ्गार्थतैकान्त प्रमाणाभासनिवात्।
सर्वेषां कार्यसिद्धिः स्याविरुद्धार्थाभिधायिनाम्।।६३ सर्वथा बहिरङ्गार्थतैकान्त और सर्वथा अन्तरङ्गार्थतैकान्त में एकात्मता नहीं बन सकती है और न ही उन्हें अवाच्य घोषित किया जा सकता है। अतः उभयैकान्त और अवाच्यतैकान्त भी सम्यक् नहीं माने जा सकते हैं।
प्रमाण और प्रमाणाभास के बारे में रस्योद्घाटन करते हुये समन्तभद्र कहते हैं कि अन्तरङ्गार्थतैकान्त में स्वसंवेदन स्वरूप भाव प्रमेय की अपेक्षा सारे ज्ञान प्रमाण होते हैं तथा बहिरङ्गार्थतैकान्त में बहिरङ्ग प्रमेय अर्थ की अपेक्षा ज्ञान प्रमाण होते हैं तथा बहिरङ्गार्थतैकान्त में बहिरङ्ग अर्थ की अपेक्षा ज्ञाान प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों रूप होता है।५ मिथ्याज्ञानों को प्रमाण मानने का निषेध उभयत्र असंभव नहीं होता है।
स्याद्वादन्याय की अपेक्षा ज्ञान प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही रूप हो सकता है क्योंकि वहाँ जीव में आवरण के अभावविशेष हेतु से सत्य-असत्य प्रतिभासन स्वरूप संवेदन संभव हो जाता है। संवेदन करने वाला जीव सिद्ध होता है। उसकी प्रतीति कराते हुये आचार्य समन्तभद्र निम्न कारिकायें प्रस्फुटित करते हैं -