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अनेकान्त 57/3, जुलाई-सितम्बर 2014 "जीवशब्दः सबाह्यार्थः संज्ञात्वाद्धेतुशब्दवत्। मायादिभ्रान्तिसंज्ञाश्च मायाद्यैः स्वैः प्रमोक्तिवत्।। बुद्धिशब्दार्थसंज्ञास्तास्तिस्रो बुद्धयादिवाचिकाः। तुल्या बुद्धयादिबोधाश्च त्रयस्तत्प्रतिविम्बिकाः।। वक्तृश्रोतृ प्रमातृणां बोधवाक्यप्रमाः पृथक्। भ्रान्तावेव प्रमाभ्रान्तौ बाह्यार्थे तादृशेतरौ॥ बुद्धिशब्दप्रमाणत्वं बाह्यार्थे सति नासति।
सत्यानृतव्यस्थैवं युज्यतेऽर्थाप्यत्यनाप्तिषु।।६ अर्थात् जीव शब्द बाह्यार्थ सहित ही होता है उसके बिना नहीं। जैसे हेतु शब्द वादी प्रतिवादी में प्रसिद्ध होने से बाह्यार्थ सहित है। तथा जिस प्रकार प्रमा शब्द का बाह्यार्थ उपलब्ध होता है उसी प्रकार माया आदिक भ्रान्ति मूलक संज्ञाओं का भी अपने मायादि स्वरूप वाला बाह्य अर्थ होता है।
बुद्धिसंज्ञा, शब्द संज्ञा और अर्थ संज्ञा से तीनों क्रमशः बुद्धि, शब्द और अर्थ की वाचक हैं। तथा इन संज्ञाओं के प्रतिबिम्बस्वरूप बुद्धि शब्द और अर्थ का बोध भी समानरूप से हो जाता है।
वक्ता श्रोता और प्रमाता के बोध, वाक्य और प्रमा भिन्न भिन्न होते हैं। यदि ये वक्ता आदि तीनों भ्रान्त हैं तो प्रमाण भी भ्रान्त होता है। प्रमाण के भ्रान्त होने पर अन्तर्जेय और बहिर्जेय स्वरूप बाह्य पदार्थ भी भ्रान्त होते हैं।
बुद्धि और शब्द में प्रमाणता बाह्य अर्थ के होने पर ही होती है बाह्य अर्थ के अभाव में नहीं। अर्थ की प्राप्ति होने पर सत्य की व्यवस्था और अर्थ की प्राप्ति न होने पर असत्य की व्यवस्था की जाती है।
संदर्भ : ५२. तदेव ६३ ५३. तदेव ६४ ५६. तदेव ७१-७२ ५७. तदेव ७३ ६०. तदेव-७६, ६१. तदेव-७८, ६४. तदेव-८२, ६५. तदेव-८३,
५४. तदेव ६५-६६ ५५. तदेव ६७-६८ ५८. तदेव-७४, ५९. तदेव-७५, ६२. तदेव-७९ ६३. तदेव-८१, ६६. तदेव-८३, ६६. तदेव-८४-८७
- राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, त्रिवेणी नगर,
मानसरोवर, जयपुर (राजस्थान)