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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
73 समीक्षा करते हुये कहा है कि पदार्थ को सर्वथा नित्य मानने पर क्रिया की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। क्योंकि सर्वथा नित्य पदार्थ कार्योत्पत्ति से पहले और कार्योत्पत्ति के समय कारक नहीं हो सकता।कारकाभाव में पदार्थ प्रमाता नहीं हो सकता तथा प्रमातृत्व के अभाव में प्रमिति (प्रमाण का फल) का होना भी असंभव है। अतएव सर्वथा नित्यत्वपक्ष में प्रमाण कहाँ और प्रमाण का फल कहाँ माना जाये। कारिका में भी द्रष्टव्य है -
___ 'नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते।
प्रागेव कारकाभावः प्रमाणं तत्फलम्।।३७
पुनश्च, व्यक्त प्रकृति से महदादिक की अभिव्यक्ति होती है। यह अभिव्यक्ति प्रमाण द्वारा होती है तो प्रमिति कहलाती है तथा कारकों से होती है तो उत्पत्ति कहलाती है। प्रमाण और कारकों से नित्यत्वैकन्त पक्ष में विक्रिया नहीं हो सकती है क्योंकि प्रमाण और कारकों के द्वारा महदादि की प्रमिति और उत्पत्ति रूप अभिव्यक्ति भी नित्य हो जायेगी जो सांख्य सिद्धान्त में सम्भव नहीं है। यदि यहाँ प्रमाण, कारक, महदादि सभी को सर्वथा नित्य मान लें तो उनमें व्यंग्य व्यंजक भाव कैसे संभव होगा? नहीं होगा। यह मानना ठीक नहीं है कि प्रधान कारण है और महदादि उसके कार्य हैं। कार्य सत् और असत् दोंनो हो सकते हैं। यदि सत्कार्यवाद मानेंगे अर्थात् कार्य को सर्वथा सत् कहेंगे तो सर्वथा सत् होने से पुरुष के समान उसकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती है। जो सर्वथा सत् है वह कार्य नहीं हो सकता है यथा चैतन्य। सांख्य चैतन्य को कार्य नहीं मानते हैं क्योंकि इसलिये ही उन्हें चैतन्य स्वरूपी पुरुष को भी कार्य करना होगा। जो सर्वथा सत् होता है किसी भी प्रकार से असत् नहीं है उसमें कार्यत्व असंभव है तथा जो सर्वथा असत् है वह भी कार्य नहीं हो सकता। आकाश कुसमु किसी के भी कार्य नहीं होते हैं। सांख्य कार्य को सर्वथा असत् न मानकर सत् मानते हैं और उसकी उत्पत्ति न मानकर परिणाम की कल्पना करते हैं यह परिणाम प्रक्लुप्ति नित्यत्वैकान्तवाद की बाधिका हो जाती है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार सांख्यों के सर्वथा नित्यत्वपक्ष में पुण्यपाप क्रिया, उसका फल, प्रेत्यभाव और बन्धमोक्ष कुछ भी सिद्ध नही होते हैं।३८
बौद्ध दार्शनिक क्षणिकैकान्त को सत्य समझते हैं उसकी समीक्षा