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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 जो होगा, देव देव ही रहेंगे कुत्ता कुत्ता ही रहेगा, यह स्याद्वाद दर्शन नहीं मानता। स्याद्वाद दर्शन में या सर्वोदय तीर्थ में अगर कुत्ता पुरुषार्थ करता है तो देव हो सकता है और यदि देव पाप करता है तो कुत्ता हो सकता है। द्रव्य कूटस्थ नहीं है, द्रव्य नित्यानित्य है, द्रव्य दृष्टि से नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है। यह आचार्य समन्तभद्र की गरिमा ही थी कि उन्होंने कहा संसार में कण-कण स्वतंत्र है। जिसको अपनी स्वतंत्रता का ही बोध नहीं, वह कैसे तिर पायेगा? कोई भगवान या कोई शक्ति आपको भगवान बनने से नहीं रोक सती तथा न ही कोई कृपा करके आपको मोक्ष पहुँचा सकती है, यह तो आपका ही पुरुषार्थ है जो आपको फल देगा और यह पुरुषार्थ सभी कर सकते हैं, इसीलिए इसे सर्वोदय तीर्थ कहा है।
आचार्य समन्तभद्र दूरदर्शी एवं लोकहितैषी आचार्य थे। सभी श्रावकाचारों में रत्नकरण्डक श्रावकाचार प्रथम श्रावकाचार है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनके पूर्ववर्ती आ० कुन्दकुन्द ने जहाँ निश्चय शैली को प्राथमिकता दी वहाँ आ० समन्तभद्र ने व्यवहार शैली को अपनाया। आ० कुन्दकुन्द ने जहाँ अपने श्रमणों को ही सन्मार्ग पर लाने तथा आगम युक्त चर्या का पालन करने पर जोर लगाया, वहाँ आ० समन्तभद्र के समक्ष सबसे प्रमुख कार्यक्षेत्र था ‘पर मत परिहार' एवं भगवान महावीर के अनेकान्त दर्शन की स्थापना, जैन न्याय की रचना एवं प्रसार।अन्य दर्शनों की एकान्तिक, भ्रमपूर्ण, विभिन्न गलत मान्यताओं का निरसन कर स्याद्वाद, अनेकान्त, न्याय, प्रमाण, नयनिक्षेप की सम्यक्ता को स्थापित कर जिनधर्म की प्रभावना का महत्वपूर्ण कार्य आ० समन्तभद्र स्वामी ने किया। उनको सार्वजनिक क्षेत्र में प्रमाणविद्या, हेतुविद्या, तर्कविद्या का सूत्रधार कहा जाना सम्मत ही है। उनके गंभीर, तर्कपूर्ण, अकाट्य प्रमाणों का ही यह परिणाम था कि अन्य मतों को मानने वाले अनेक राजाओं ने जैनधर्म और दर्शन को स्वीकार किया। उनके प्रभाव से ही राजा शिवकोटि ने संपूर्ण साम्राज्य के साथ जैन धर्म स्वीकार किया तथा बाद में निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि दीक्षा अंगीकार कर बाद में आचार्य पद प्राप्त कर मूलाराधना-भगवती
आराधना ग्रन्थ की रचा की। आचार्य समन्तभद्र अत्यन्त उत्कृष्ट सिंह वृत्ति के निशंक तथा शास्त्रार्थ करने में अग्रणी थे।
स्वयंभू स्तोत्र में आचार्यश्री कहते हैं -